एक टुकड़ा धूप
आया
है कई दिनों बाद
मेरे
चौकोर आँगन में
मैं
चटाई अपनी सरका
रही हूँ
धीरे
धीरे
जहाँ
जहाँ वो चलता है
अनवरत
सुबह
से शाम हो जाती है
रुक
क्यों नहीं जाता कुछ
और
घंटो
के लिए आज
तुम
धूप क्यों नहीं बन जाते
फिर
कल आऊंगा बोलकर
देह
पर पड़कर,
सख्त
हो गई हड्डियों
में
कुछ
देर ठहर जाने को
ओढ़कर
तुम्हें बैठूँगी कुछ देर
गर
थक गयी तो सुस्ता
लूँगी
टाँगे
फैलाये बेधड़क
देखो
ना
गमले
पर लगे फूल भी
मुरझा
रहे हैं मेरी तरह
तुम
आ जाया करो हर
रोज़
तयशुदा
वक्त पर बिना नागा
किये
धूप
!