Monday, July 04, 2022

धूप

एक टुकड़ा धूप

आया है कई दिनों बाद

मेरे चौकोर आँगन में

 

मैं चटाई अपनी  सरका रही हूँ

धीरे धीरे

जहाँ जहाँ वो चलता है अनवरत

 

सुबह से शाम हो  जाती है

रुक क्यों नहीं जाता कुछ और

घंटो के लिए आज

 

तुम धूप क्यों नहीं बन जाते

फिर कल आऊंगा बोलकर

देह पर पड़कर,

सख्त हो गई  हड्डियों में

कुछ देर ठहर जाने को

 

ओढ़कर तुम्हें बैठूँगी कुछ देर

गर थक गयी तो सुस्ता लूँगी

टाँगे फैलाये बेधड़क

 

देखो ना

गमले पर लगे फूल भी

मुरझा रहे हैं मेरी तरह

तुम जाया करो हर रोज़

तयशुदा वक्त पर बिना नागा किये

धूप !

असीम शक्ति

 तुम इस ब्रहमाण्ड में विद्यमान 

कण जैसी
ढूंढती हो रोज मुझे 
हर रात सैकड़ो करोडो 
जगमगाते सितारों के बीच 

दूरबीन तुम्हारी 
टटोलती है ठिकाना मेरा 
मैं इंतज़ार में रहता हूँ कई मर्तबा 
की कब तुम आओगी 
और खोलोगी कई राज़ मेरे 

अभी कितनी ही उम्र और लगेगी मुझे 
जगमगाता सितारा बनने को 
क्या करोगी इंतज़ार तब तक या 
छोड़ दोगी ठीक वैसे ही जैसे 
छोड़ दिया था मुझे बीते जमाने में 
मेरी तन्हाइयों के साथ 

मैं तब से अब तक धधक रहा हूँ  
कई ताबिश अपने सीने में छुपाये 
बस अब सब्र नहीं होता जल्द ये आग ख़त्म हो 
और मैं मिल जाऊं इस असीम शक्ति में। 

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सपने


सपने आने लगे हैं बहुत इन दिनों 

तुमने कहा था नींद कमज़ोर हो 
तो आ ही जाते हैं 
कुछ भी ऊलजलूल 
दिमाग की उपज सपने 

तुम कहीं नहीं थे उन में दूर दूर तक 
कुछ याद रहे कुछ भूल गयी 

कल रात
दो साल पहले, की हुई बात 
आयी सपने में 
इस बार सब चुप थे सिर्फ मैं बोल रही थी 
कुछ भी ऐसे ही ऊलजलूल 
तुम्हें बताया तो तुम बोले 
आजकल बहुत बोलने लगी हो 
शायद इसलिए 

नींद पूरी नहीं हुई कल रात भी 
दिमाग ढूंढता रहा कुछ 
सफ़ेद बादलों  के बीच 
हंसों का जोड़ा 

Gaint Wheel झूला 
लबालब पानी से भरे तालाब के बीचोंबीच 
वो रहट की तरह गोल घूम घूम कर 
हर डब्बे में  पानी भरता और ऊपर पहुंचते ही 
सारा पानी उड़ेल देता 

सुबह उठी तो बहुत थकी हुई थी 
जैसे शायद थक जाता है कोई मज़दूर 
पत्थर ढो-ढो  कर
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Lockdown 2020

 


इन दिनों हर शाम  छतें मेरे मोहल्ले की 

गुलज़ार सी है 
जो सूनापन 
रहा करता था यहाँ 
सालों दर सालों
वो कैद हो जाता है ठीक वैसे ही 
जैसे हम रुके हैं अपने आशियाने में 
इन दिनों 

चिड़ियों की आवाजें  
साफ़ सुनाई देने लगीं हैं आजकल 
आसमां भी  कुछ ज्यादा नीला लगता  है 
जैसा  दिखता था मुझे मेरे बचपन में पहाड़ों पर 
यकीन नहीं होता 
क्या ये मेरा ही शहर है ??

लूडो, कैरम , शतरंज की बिसाते बिछने लगी है
किताबें जिनपर गर्त हुआ करती थी
सफे उनके पलटने लगें हैं
पकवान जो आर्डर 
किये जाते थे एक क्लिक पर
हाथ आजमाइश उन पर होने लगी 

सबकुछ  थम गया है 
मशीनें, गाड़ियां और आदमी भी 
कुदरत को रौंदते सोचा ना था कभी इसने 
की ऐसा मंजर भी कभी मुकम्मल होगा 

इंसान कितना बेशर्म और लालची है 
अहसास हुआ इस दरमियाँ 
आज जब बात आयी 
अपनी जिन्दगी पर
तो घरों में दुबका पड़ा है 

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 तुम 


तुम्हारी गरीबी जग ज़ाहिर सी 

फटे कोट में लगे पैबंद की तरह 

उधड़ जाती है 

तूफ़ानअकालबाढ़  और महामारी के वक्त 

कितने ही साल फिर और लगेंगे 

सीने में उसको 

चाक-चौबंद  बांधते हो तुम अपनी झोपड़ी 

हर साल चौमास की रातों को काटने के ख़ातिर 

फिर एक रोज़ 

निसर्गअम्फान आते है अफ़रा - फ़री में  

और उड़ा ले जाते हैं सपने तुम्हारे

तुम कितने मेहनती हो ईमानदार भी 

सोचते होगे कई मर्तबा क्या इसलि 

गरीब हूँ 

छोटी छोटी ख़्वाहिशें और ढ़ेर सा सुकून 

खुशियाँ तुम्हारी कितनी मासूम सी 

उमड़ ही आती हैं कभी भी 

छोटे बच्चे की मुस्कान की तरह

तुम्हारा धैर्यसमर्पण और जीने की चाह 

उत्साहित करती हैलड़ना सिखाती है 

चुनौतियों सेप्रेरित करती है जीने के लिए

 भारत 2020

..................

ये रंग कब से मज़हबी होने लगे

हरा इस्लाम और नारंगी भगवा कहने लगे

एक अज़ान सुनाई  देती है ठीक  बजे हर रोज़

तुम क्यों मुँह सुनकरउसे सिकोड़ने लगे

अज़ान ख़त्म होते ही सुनाई देता है भजन मुझको

जय जय जय  बजरंग बली    

आराधना तुम्हारी भी वैसे ही है

इबादत होती है जैसे उनकी

दुर्गा अष्टमी के चने हलवाईद की सेवइयां

खायी है कई मर्तबा साथ मिलकर

फिर क्यों इन सब बातों पर

अब तुम यूँ उलझने  लगे

ये देश पहलेऐसा तो

ना दिखता था कभी

जैसा  दिखता है मुझे अभी

फ़िज़ा में नफ़रत सी क्यों घुली हुई है

हर तरफ़ तलवार सी क्यों खिची हु है

ये मेरा ही हिन्दोस्ताँ है दोस्तों 

या कोई और ज़मीं है

राजनीति भी क्या क्या रंग दिखती है 

पहले पहल हिन्दू मुस्लिम अलग थे 

आज हिन्दू हिन्दू को अलग बताती है 

विकास की बात तो कहीं गुम गयी है 


हमारी बहसें किसी निष्कर्ष से 

पहले ही तन गयी है 

वक्त रहते हम संभल जाए 

क्यों अपना और दुसरो का खून जलाएं 



#भारत #२०२० #मेरा भारत महान

Wednesday, May 11, 2022

Untitled

 बेंत से  बनी  कुर्सियाँ टूट गयी हैं चरमरा कर

थोड़ा वार्निश बचा है  उन में अभी भी

हमारे रिश्ते की गर्माहट सा

पिछली बरसातों,  तुम  भूल गए थे उनको बाहर लॉन में

 

उन दिनों लगातार  पानी बरसा

बिना रुके  दिन रात

रह रहकर तुम भी रिसते रहे

मेरी यादों से

 

आज कल बेमतलब

बात करने को जी चाहता है

चार दो चार दिन का पता नहीं

लेकिन

२० साल पुरानी सारी  बातें याद

आने लगी हैं

अब तो अक्सर ऐसा होता है

 

क्या मेरी खामोशियाँ  अब भी
जाती हैं तुम्हारी मशरूफ़ियत
के दरमियाँ 
उनको खामोश ही रहने दिया है
मैंने एहतियातन

इस  दफ़ा आना
तो छोड़ आना शिकायतों का पुलिंदा
घर के स्टोर रूम में
घंटो बैठेंगे  बेंत  से बनी  कुर्सियों पर
लॉन के ठीक  बीचो बीच
अब धूप खूब खिली रहती है
भरी दोपहरी

Wednesday, April 06, 2022

बदनाम लड़कियाँ

 छापे मारकर लायी गई लड़कियाँ

अपने सीने के उभार  को दुपट्टे में छुपाती

 

शिनाख्त ना हो पाने की कवायत में

मुँह को कपडे में ढाँपती

लगभग धकेली हुई

थाने ले जाती हुई लड़कियाँ

 

अपने पैर के अंगूठे से फर्श को कुरेदती

दीवारों को एक टक  ताकती

 

किस्मत को कोसती, माँ बाप को धिक्कारती

थाने में लाइन से खड़ी की गई लड़कियाँ

 

कुछ गंभीर, कुछ बेपरवाह, कुछ सजल

जवानी की मैराथन में हांफती, निढ़ाल सी

गुमसुम, गुमशुदा सी लड़कियाँ

 

विस्थापन से स्थानन की ओर

समाज से बहिष्कृत, गरीबी से त्रस्त

समाज में स्वकृति से वंछित

कुछ बदचलन सी लड़कियाँ

 

ठीक हमारे घर जैसी

लेकिन थोड़ी अलग

दिल में सैकड़ो सवाल लिए

ज़बान को  बंद किये

हमारे गली मोहल्ले सी दिखती

थाने में खड़ी लड़कियाँ

Wednesday, March 16, 2022

मैं नागफनी

 



तुमने दबाया, जब जब  भी मुझे
मैं नागफनी जैसी उग  ही आउंगी
जब जब काटोगे, छीलेंगे हाथ तुम्हारे भी

घाव मेरे भर जाएंगे किसी दिन
घाव तुम्हारे नासूर बनकर
सतायेंगे दिन रात तुम्हें

तुम्हारा अभिमान डिगा ना पायेगा
मेरा स्वाभिमान कभी
तुम फ़ौज जो दुराचारी सी
मैं अकेली निहथ्ही  सही
अबला - अभागी नहीं

तुम्हें संदेह होगा कभी
शायद गुमान भी हो  जाए
की थक गयी हूँ या हार मान ली  है मैंने
ये शंका के बादल  हटा  लेना जल्द ही
और दोहराना कई मर्तबा
जब जब भी कभी काटोगे मुझे
उग ही आउंगी नागफनी जैसी