Tuesday, September 18, 2007

सुख

भाग (2)

फिस मे कैसे दिन गुजरा अहसास तक ना हुआ...जब अम्मा इला के पास आई थी, तब दिन मे एक बार तो फोन जरूर आ जाया करता था... या तो लंच से ठीक पहले या ठीक उसके बाद, खाना खाया की नही और अगर गलती से भी देर हुई तो अम्मा का वही उसे डाँटना, फिर वो झुंनझलाहट मे सिर्फ इतना ही कह पाती, ओफ ओ अम्मा तुम भी ना कहीं भी शुरु हो जाती हो.... अभी आफिस में हूँ थोङा काम था सो नहीं कर पाई.... अच्छा ठीक है जल्दी से कर लो, काम होता रहेगा इतनी मेहनत भला किसके लिये करती हो।


मुश्किल से 15 मिनट होते नहीं कि फिर से फोन और इस बार भी घर से हैं, जरूर अम्मा का होगा। फोन उठाते ही इला बोली कर लिया अम्मा, सब्ज़ी बहुत स्वाद थी। तब जाके अम्मा को सूकुन मिलता।

अच्छा ये बता रात मे क्या खायेगी?
कुछ भी बना देना तुम्हारे हाथ से बना तो सब अच्छा लगता है।

लेकिन देखो ना... आज सुबह लेट हो गया, ऊपर से काम बहुत, बस इसी चक्कर मे आज लंच करना ही भूल गई, चलो अब रात में ही खाया जायेगा।


इस शहर के ट्रैफिक ने तो नाक़ में दम कर रखा है सुबह तो होता ही है, शाम को भी चैन नहीं....बस मशीन की तरह चलता रहता है... सारी एनर्जी आफिस और घर पहुँचने में ही लग जाती है। कभी कभी सोचती हूँ सब कुछ छोङकर अपने गाँव चली जाँऊ वह इतना भी अनडैवलप नहीं।

अभी कुछ दिन पहले ही पङोस के गुप्ता जी अम्मा को बोल रहे थे, क्या कर रही ही है इला वहाँ अकेले रहकर... उसे कहो वापस आ जाये, काम ही करना है तो मैं उसे अपने स्कूल मे लगवा दुगाँ।

चलो घर तो पहुँची, वही उदासी, एंकात, बेचैनी, घुटन और उबकायी सुबह से कुछ नहीं खाया लेकिन भूख तो शायद मर ही गई है, ना दिन मे लगती है ना रात में... अम्मा को कई बार बोला आ जाओ तुम ही मेरे पास, लेकिन हमेशा एक ही मजबूरी... कैसे आ जाऊँ बिटिया यहाँ पपा और इस घर को कौन देखेगा। कई बार लगता है एक घर के दो बंटवारे हो गये है। अब दो चूल्हे जलते है, दो मंदिर है, दो जगह त्योहार मनाये जाते है। लेकिन वही उदासी, एंकात, बेचैनी, घुटन और उबकायी दोनों जगह चौकङी जमाये मुँह चिढाती है।


Friday, September 14, 2007

मंजिले तो बहुत हैं लेकिन फासले कम नहीं|

ऐसे तो कई मुद्दे हैं, कभी कभी मन में ये विचार भी आ जाते हैं, जबकि कोई दबाव नहीं, कोई मजबूरी नहीं और ना ही कहीं कोई तानाशाही है लेकिन ये बात कई बार दिल को कचोट जाती है औरत तो औरत है और औरत ही रहेगी कुछ सालों पीछे चली जाँऊ (ज्यादा नहीं सिर्फ ३० साल) तो माँ बातती हैं की दादा जी ने उन्हें नौकरी करने कि मंजूरी नहीं दी थी शायद ये कहकर कि भले घर कि औरते काम पर जाती हैं क्या या फिर ये सोचकर की अपने पति से अच्छी नौकरी भला कैसे तुम कर सकती हो फिर तो कई बहाने, कई सुविधाओं को गिना दिया गया अरे इतनी दूर है, रोज़ बस से आना जाना कैसे करोगी बस फिर क्या था पपा ने भी दादा जी की बातों को तव्जों देकर माँ को नहीं करने दी नौकरी ऐसा नहीं है कि दादा या पपा पङे लिखे नहीं हैं लेकिन फिर भी विचारधारा में कई बंदिशें निर्धारित थीं

आज इक्कस्वी सदी तक पँहुचते पँहुचते ये बदलाव तो है कि औरत नौकरी कर सकती है, कुछ पैसे कमा सकती है लेकिन फिर भी कुछ तो बंदिशे अब भी बरकरार हैं अगर औरत घर अक्सर देर से लौटेने लगे तो इन हिदायतों का मिलना तो लाज़मी सा है

देर तक बैठना पङता है तो छोङ क्यों नहीं देतीं?
घर कि तरफ भी तो देखा करो?

अरे अब बस करों, क्या मेरा कमाया पैसा कम पङता है?
अगर आदमी प्रोफैशनल बनकर अपना काम लेट आर्स तक बैठ कर कर सकता है तो औरत के ऐसा करने पर ऐतराज़ क्यों?

अरे इतनी दूर आफिस ज्वाइन करने वाली हो, पता है पूरे १ घंटे की ड्रईव है, फिर तुम्हें घर भी तो दिखना है कौन करेगा ये सब

ऐसी कई बातें है जो दिल के अंदर घर कर जातीं है, उम्मीद है आने वाला कल और बेहतर होगा

मंजिले तो बहुत हैं लेकिन फासले कम नहीं