Tuesday, October 21, 2008

जीवन एक रेखागणित

दो जीवन समान्तर
चलकर भी कभी
बिछुङ जाते हैं

एक नारियल बेचने वाला
अपनी वृत की गोल
परिधी में घूमकर भी कभी
खो जाता है

और वो प्रेमी अपनी
पत्नी और प्रेमिका के
प्रेम मे पङकर
एक त्रिभुज के तीन कोनों में
असंतोष और भय से
बचता हुआ
भटक - भटक कर
थक जाता है

रिश्ते
बदल जाते है कभी
जैसे किन्ही दो
रेखाओं का कोण
किसी आकृति की
रुपरेखा बदलकर उसे
वर्ग से आयताकार बनाकर
उन रेखाओं के बीच की
दूरी बढा देता है

(विजेन्द्र एस. विज़ की पेन्टिंग)

Thursday, October 16, 2008

"तुम यहीं तो हो"

शाम के धुंधलके में
ओस की कुछ बूदें
पत्तों पर मोती सी चहक कर कह रही हैं
तुम यहीं तो हो
यहीं कहीं शायद मेरे आसपास
नहीं शायद मेरे करीब
ओह$ नहीं सिर्फ यादों में
दूर कहीं किसी कोने में छुपे जुगनू से
जल बुझ, जल बुझ
भटका देते हो मेरे ख्यालों को
और भवरें सा मन
जा बैठता है कभी किसी तो
कभी किसी पल के अहसास में
और तब तुम
दिल में उठती एक टीस की तरह
घर कर जाते हो दिलों दिमाग में......
(पेबलो पिकासों की पेंटिंग)

Wednesday, October 08, 2008

एकतारे का सुर


हम चले जा रहे थे, आगे घाट की ओर तभी ध्यान गया अपनी दाईं तरफ एकतारे का सुर, पहले भी सुना तो था लेकिन इतना मधुर नहीं, कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या शब्द हैं, क्या गीत के बोल हैं क्या गा रहा है? लेकिन एकतारे का सुर और बोल के साथ ताल बहुत मोहक थी राक सुनती हूँ, गज़ल, फ्यूज़न और शास्त्रीय भी लेकिन ये जो भी था मन को तर करने वाला था सो रिकार्ड कर लिया पहले लगा १ मिनट बहुत है, लेकिन जब डाउनलोड करके सुना तो लगा कि और क्यों नहीं रिकार्ड कर लिया

वो रोज़ सुबह यहाँ आता है, एकतारा और साथ में एक थाली लिये, पहले जब आँखों की रोशनी थी तब महाजन के खेतों में काम करता था, एकतारे को अपने मन बहलाने या शौक के लिये बजाया करता था लेकिन अब वो उसकी अजीविका का साधन बन गया है उसने ये एकतारा खुद बनाया, आश्चार्य हुआ खुद कैसे, कद्दू को सुखा कर और उस पर एक डंडी को तार से बांध कर वो दुनिया से बेखबर बस बजाता रहता है और भगवान को याद करता है, शायद मन ही मन कोसता भी हो भगवान आप कितने कठोर हैं अब आगे के दिन ऐसे ही गुज़रेगें जिन्दगी पहले बहता पानी लगती थी लेकिन अब बहुत विशाल पहाङ