Wednesday, December 03, 2008

"अमन चाहिये, सुकून चहिए, जिन्दगी चाहिये"

सोचा भाग चलूँ, दिल्ली छोङ मुम्बई, फिर मुम्बई से बैंगलौर, आसाम, जयपुर, गुजरात और कहाँ - कहाँ भागूँ... थक गई हूँ जिन्दगी को बचाते। सभी तो थक गये हैं, डरे हुये हैं, आतंकित है, अपनों के लिये, अपनों के अपनों के लिये और फिर भविष्य के लिए भी तो।

हमेशा से तो ऐसा ही हुआ है, आज घटना घटी और कुछ समय बाद सब कुछ पहले सा... लेकिन एक डर घर किये जा रहा है, कचोटता है भीतर तक, सोने नहीं देता रातों को, बेचैन कर देता है सपनों में।

कोख मे पल रहे बच्चे कि आवाज़ सुनाई देती है. माँ, माँ सुन रही हो?? क्या करूगाँ इस दुनिया में आकर यहाँ मैं सुखी हूँ, सुकून और इत्मिनान से हूँ। क्या करूगाँ तुम्हारी दुनिया में आकर वहाँ तो सिर्फ घृर्णा है, पाप है, आतंक है, भ्रष्टाचार है, क्या तुम खुश होगी मुझे इन सबके बीच पाकर।

क्या सच ये विधी का विधान है, सृष्टी का अंत या कुछ और हम सब परेशान हैं, अभी कितने दिन और? क्या लौट नहीं सकते सुकून भरे दिन, कितने दिन और? क्या ये इंतजार खत्म होगा या उससे पहले ये सृष्टी नष्ट हो जायेगी. किसे मालूम??

पता नहीं आदमी क्या चाहता है, कहाँ भाग रहा है क्या पता?? आदमी आज चांद पर है, अंतरिक्ष में है लेकिन सुकून कहीं नहीं कहीं भी नहीं....

आदमी भगवान से जाने क्या क्या माँगता है, लेकिन अमन, चैन, शान्ति और सुकून... नहीं माँगता पता नहीं क्यों?? पता नहीं क्यों???