खूब हुआ करते थे बचपन के दिन, मस्ती भरे, बेफिक्र, कूदते फांदते बकरी के मेमने से कोमल महसूस करो तो लगता है काश गुज़र ना पाते, ठहर तो जाते वो दिन. मम्मी खूब समझाया करती थी, रोकती टोकती और फटकारती, लेकिन बचपन दौड़ चलता गली - गली, साइकिल के पुराने टायर को लकड़ी के सहारे गोल गोल घुमाता, भूल जाता मम्मी की डांट-फटकार डर जाता तो झूट बोलता, और पकडे जाने पर अड़ जाता, फैल जाता, खुद को सही साबित करने और मम्मी को गलत बहुत जुगत लगता.. जब लगता मम्मी नहीं मानेंगी तो उन से लिपट कर प्यार से sorry बोल देता, और मम्मी फट से एक चेतावनी देकर माफ़ कर देती, और कभी कभी डरा भी देती दोबारा ऐसा हुआ तो पापा को बोल दूंगी... लेकिन पता नहीं कैसे बचपन इतनी डांट-डपट के बाद भी भूल जाता वो डर, चेतावनी, हिदायत और मम्मी से किया वादा...
हम जब बच्चे थे तो खूब खेला करते थे ऊँच-नीच का पापड़ा, मारम पिट्टी, खो खो, छुपम छुपायी और हाँ सबका पसंदीदा पाला मुझे ठीक से याद है मेरी दसवीं क्लास की परीक्षा थी फिर भी हम हर शाम को सब दोस्त मिलकर खेला करते थे, मम्मी बहुत मना करती डराती फेल हो जाओगे पड़ लो, लेकिन नहीं हम कहाँ सुनाने वाले थे... खेलना है तो खेलना ही है चाहे फिर फेल ही क्यों ना हो जाएँ आज की Generation के बच्चों को देखती हूँ तो लगता है कितना सिमट गया है उनका संसार पता नहीं कैसे? मुझे मन करता है उन्हें देखने का उन सब खेलो से जो हम खेला करते थे लेकिन वो सब कहीं गुम हो गया है कैसे, पता नहीं???
(फोटो: Forwarded मेल में मिला अच्छा लगा, लगा लिया)
6 comments:
Khoob..
शायद उस दौर से गुजरे हर व्यक्ति के मन में यही ख्याल उपजते हैं...
शायद उन खेलों की जगह अब टीवी, कम्प्यूटर और पढ़ाई के अतिरिक्त बोझ ने ले ली है.
शायद यही वजह है कि अब बचपन वाले जीवन भर साथ चलने वाले दोस्त भी नहीम बनते.
बढ़िया लिखा..बधाई.
वैसे, थोड़ा ज्यादा नियमित हो जाओ अब तो ...:)
nice post...
सचमुच बचपन सामने रख दिया है.... वैसे आजकल यही हो रहा है....
एकदम सही चित्रण
दिक्कत यही है के "पॉज़" का कोई बटन नहीं होता न "रिवाइंड" का.......
बहुत ही शानदार। पढ़कर वाकई मज़ा आ गया। साथ ही सीख भी मिली। विशेष धन्यवाद भी दे रहा हूं क्योंकि मेरे बचपन की यादें भी ताज़ा हो गईं।
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