Friday, February 17, 2006

अनजानी पहचान

मैं रोज़ की तरह
आज भी
उसी १२ न० की बस से
आफिस जाता हूँ

वो बस
बीच रस्ते में
मुझे उतार देती थी
लेकिन फिर भी
तेरी एक झलक के लिये
ये कम था

मैं कन्डक्ट की सीट
की दाँई तरफ से
चौथी सीट पर बैठा
तुम्हारे स्टाप आने का
इन्तज़ार करता
और तुम
चुपचाप चढकर
बाँई ओर
से तीसरी सीट पर बैठ जाती

मैं मंत्रमुग्ध सा
तुम्हें निहारता रहता
और कई बार सोचता
कि काश
ये रस्ता
तुम्हारा स्टाप आने तक
बहुत लम्बा हो जाये

फिर तुम
मुझसे पहले ही
उतर जाती

उस दिन तुम्हें

अपनी
बगल वाली सीट पर
ना देखकर लगा
तुम
मुझसे

बहुत दूर चली गई हो...

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