मैं रोज़ की तरह
आज भी
उसी १२ न० की बस से
आफिस जाता हूँ
वो बस
बीच रस्ते में
मुझे उतार देती थी
लेकिन फिर भी
तेरी एक झलक के लिये
ये कम था
मैं कन्डक्ट की सीट
की दाँई तरफ से
चौथी सीट पर बैठा
तुम्हारे स्टाप आने का
इन्तज़ार करता
और तुम
चुपचाप चढकर
बाँई ओर
से तीसरी सीट पर बैठ जाती
मैं मंत्रमुग्ध सा
तुम्हें निहारता रहता
और कई बार सोचता
कि काश
ये रस्ता
तुम्हारा स्टाप आने तक
बहुत लम्बा हो जाये
फिर तुम
मुझसे पहले ही
उतर जाती
उस दिन तुम्हें
अपनी
बगल वाली सीट पर
ना देखकर लगा
तुम
मुझसे
बहुत दूर चली गई हो...
No comments:
Post a Comment