Thursday, February 16, 2006

मेरे लम्बी कवीता ०१

तुम
बहुत अच्छे हो
बोलती हूँ कई बार
लेकिन
तुम यकीन नहीं करते
हमेशा की तरह
और
अपनी गर्दन झटक कर
मुहँ से बस
ऊहँ कह देते हो

मैं
यकीन दिलाने को
पूरे विश्वास से
तुम्हें देखकर
फिर बोलती हूँ
तुम....
बहुत अच्छे हो

तुम
फिर ना मानकर
दोबारा पूछने लगते हो
अच्छा हूँ....??
तो बताओ कैसे......???

मै
कुछ पल सोचकर
मुस्कुरा देती हूँ
और
प्यार से तुम्हारे
माथे को चूमकर
फिर बोलती हूँ
हाँ बस,
अच्छे हो.....

लेकिन तुम
ना मानने कि ठानकर
एक ज़िद्दी बच्चे से
इस बात पर अडकर
हट करते हुये,
झुझंलाकर
फिर बोलते हो
लेकिन बताओ तो कैसे,
कैसे मैं अच्छा हूँ......???

मैं असमंजस मे
उस स्थति मे आ पहुँचती हूँ
जहाँ मेरा मन
तुम्हें प्यार और अपना
सब कुछ
देने को व्याकुल
हो उठता है

मन
जो बहुत कुछ
कहना चाहता है लेकिन
दिमाग
उन सब शब्दों को
खोजता रह जाता है
जिनसे तुम्हें
यकिन हो जाये
कि सच
तुम बहुत अच्छे हो..

फिर तभी
तुम्हें यकीन
दिलाने को
मैं कह उठती हूँ

तुम,
तुम इतने अच्छे हो की
मेरी सांसों में
तुम्हारी ही खुशबू आती है

तुम,
तुम इतने अच्छे हो की
मेरे दिल से तुम्हारा नाम
इन रगो के कतरे कतरे मे
जा बसा है

तुम,
तुम इतने अच्छे हो की
मैं खुद मे तुमको
ढूढनें लगती हूँ

शायद
ये सब सुनकर
तुम्हें यकीन हो जाये
की सच
तुम बहुत अच्छे हो
इस दुनिया में
मौजूद सभी चीज़ों से...

----------------------

5 comments:

Rati said...

sangeeta , badhai, behad khoobsurat kavita he
kritya k e liye dogi?

Rati di

अनूप भार्गव said...

सुन्दर अभिव्यक्ति है ...

RC Mishra said...

अरे वाह, बधाई हो, बहुत अच्छा लिखा,
मैं इतनी जल्दी पढता और मह्सूस करता गया कि, २ बार पढ गया।
आप लिखते रहिये यही कामना है।

प्रवीण परिहार said...

शायद उसे यकिन नही आ रहा है,
अपने अच्छे होने का।
क्योंकि वो सोचता है कि
तुमसे मिलने से पहले तो
वो इतना अच्छा नही था।
उसके इतने अच्छें होने का कारण
कहीं तुम तो नही।
और फिर तुम्हारी आँखों में उसे
अपने अच्छे होने का
कारण मील गया होगा।

Rati said...

kyaaa baat he