तुम
कितना बदल गये हो
मैं तो
बहुत खुश थी
बरसात मे टपकती
उस छत के नीचे भी
मुझे यकिन नहीं
क्या सच ??
ये सब
मेरी खुशी के लिये था
लेकिन
आज मेरे पास
सिर्फ मैं और तुम्हारी
ख्वाहिश वाली
छत ही तो है
मैं
क्या करू?
तुम दूर जाने लगे हो
उस रेल कि
पटरी कि तरह
जो मेरी खङी
जमीन से चौङी
और
दूर जाकर
एक
संकरे रस्ते में
बदल जाती है
3 comments:
ये छत की एक और सुन्दर कविता है, मुझे लगता है अब एक संकलन निकाला जा सकता है छत की कविताओं का।
अच्छा लिखा है, संगीता जी.
समीर
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