Wednesday, October 25, 2006

मेरी दिवाली

तुम्हारे संग मनाई
हर वो दिवाली
कुछ याद सी
आ रही है

उस रात के
अमावसी
अधेरें से दूर,
सिर्फ
मैं और तुम
दीपों के बने
गोल धारे में बैठे
इंतज़ार करते रहे
कि काश
ये अमावस,
प्रकाशवर्ष से भी
लम्बी हो जाये

हाँ सच,
उस रात
अहसास
हुआ था मुझे,
सीता मैय्या कि
अतह: पीङा का
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5 comments:

अनुराग श्रीवास्तव said...

उन लम्हों को कहीं खो न सकूं
बांध गठरियों में
आस्मां पर छुपाया है

तुम्हारे नूर से वो दिन रोशन थे
बिन तेरे रात को
गठरियों के तारों से सजाया है।

अनुराग श्रीवास्तव 25 अक्टूबर 2006

गिरिराज जोशी said...

यादों के झरोंखो से
जो पीड़ा
आप साथ ले आए हैं
अब
हमें भी अखरता है
शायद कहीं
हम भी
कुछ भूल आए हैं ॰॰॰॰

Udan Tashtari said...

बहुत सुंदर और गहरी कविता है. बधाई.

दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें.

--समीर लाल

राकेश खंडेलवाल said...

याद आने लगे हैं
तुम्हारी आँखों में जलते दीप
अहसास की छूटती फुलझड़ियां
और तुम्हारे सामीप्य की रांगोली
हां
ये अमावस अब उतर गई है
कहीं?????

प्रवीण परिहार said...

संगीता जी, आपकी यादों की गठरी में बहुत प्यारे-प्यारे मोती है। यह मोती भी बहुत अच्छा है।
दिपावली की बहुत-बहुत शुभकामनाऐ।