तुम्हारे संग मनाई
हर वो दिवाली
कुछ याद सी
आ रही है
उस रात के
अमावसी
अधेरें से दूर,
सिर्फ
मैं और तुम
दीपों के बने
गोल धारे में बैठे
इंतज़ार करते रहे
कि काश
ये अमावस,
प्रकाशवर्ष से भी
लम्बी हो जाये
हाँ सच,
उस रात
अहसास
हुआ था मुझे,
सीता मैय्या कि
अतह: पीङा का
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उन लम्हों को कहीं खो न सकूं
बांध गठरियों में
आस्मां पर छुपाया है
तुम्हारे नूर से वो दिन रोशन थे
बिन तेरे रात को
गठरियों के तारों से सजाया है।
अनुराग श्रीवास्तव 25 अक्टूबर 2006
यादों के झरोंखो से
जो पीड़ा
आप साथ ले आए हैं
अब
हमें भी अखरता है
शायद कहीं
हम भी
कुछ भूल आए हैं ॰॰॰॰
बहुत सुंदर और गहरी कविता है. बधाई.
दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें.
--समीर लाल
याद आने लगे हैं
तुम्हारी आँखों में जलते दीप
अहसास की छूटती फुलझड़ियां
और तुम्हारे सामीप्य की रांगोली
हां
ये अमावस अब उतर गई है
कहीं?????
संगीता जी, आपकी यादों की गठरी में बहुत प्यारे-प्यारे मोती है। यह मोती भी बहुत अच्छा है।
दिपावली की बहुत-बहुत शुभकामनाऐ।
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