Friday, March 30, 2007

"यूँ कभी"

सोचो कभी ऐसा हो जाये
सब-वे कि सीङियों को चङते
तुम से नज़रें अटक जाये

(१)
क्या तुम देखकर भी
अनदेखा कर दोगे
या
लगा दोगे सवालों कि
झङियाँ
या
सब कुछ भूलकर
खो जाओगे इन
आँखों के घेरों मे

(२)
शायद ये मेरा
भ्रम होगा
कि तुम
गुज़रे थे
अभी यहीं से

कहाँ रहीं तुम
इतने दिन
क्या उन दिनों के
किसी भी पल ने
याद दिलाई मेरी

उन दिनों के
हर मंजर
आज भी
चमक रहे हैं
तुम्हारी आँखो में
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8 comments:

उन्मुक्त said...

लगता है कि अब गुलाब की महक को पकड़ पा रही हैं।

प्रवीण परिहार said...

बहुत अच्छी अभिव्यक्ति है। हमेशा की तरह।
प्रवीण परिहार

ghughutibasuti said...

आपकी कई रचनाएँ पढ़ डालीं सब एक से एक सुन्दर हैं । मेरा कहने का तो अधिकार नहीं बनता क्योंकि मेरा हिन्दी ग्यान सीमित है , साहित्य का तो शून्य है । किन्तु आपकी कविताएँ बहुत अच्छी हैं । सरल सीधी और सुन्दर ।
घुघूती बासूती

ALOK PURANIK said...

शुभकामनाएं
आलोक पुराणिक

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर रचना है।

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

आपकी कविताओं में गुलाब की मासुमियत, ओस की ठंडक और मिट्टी की सोंधी महक है। लगता है जैसे कोई अल्हड किशोरी गुनगुनाती होई सामने से गुज़र रही हो।

राजीव रंजन प्रसाद said...

सरलता सहजता से प्रस्तुत दिल के उदगार सर्वश्रेष्ठ रचनायें हैं..

*** राजीव रंजन प्रसाद

डाॅ रामजी गिरि said...

"शायद ये मेरा
भ्रम होगा
कि तुम
गुज़रे थे
अभी यहीं से"

बहुत ही खूबसूरत अंदाज़ है प्रेम-विरह परीकल्पना का..