Friday, August 10, 2007

सुख

भाग (१)

आज फिर लेट हो जायेगा, तेज गाङी चलाती हूँ पिछले तीन दिन से रेड मार्क लगवा रही हूँ बस आज और लेट हुई तो बास से झाङ पक्का इला झुनझलाहट में अपने आप से बात किये जा रही थी ये मोटर बाईक वाले भी ना जहाँ से मन किया वहाँ से निकाल लेते है जरा भी नहीं सोचते अब देखों फुटपाथ को भी नहीं छोङा, खैर क्या करें ट्रैफिक ही इतना हो गया है जहाँ देखों वहीं कुछ ना कुछ काम चल रहा है, अब सरकार का क्या है, उनकों तो कभी ट्रैफिक जाम से वासता नहीं हो भी कैसे दौरे से पहले सारा ट्रैफिक, रोक जो लिया जाता है जहाँ देखो वहाँ भाग-दौङ हर कोई रेस मे भागने वाले घोङों कि तरह भागता ही जा रहा है कितना कुछ बदल गया है लोगो और उनके विचारों मे ग्लोबल वोर्मिग ने लोगों के अन्दर भी इतनी वार्मथ भर दी है कि कहीं भी लोग उबल पङते है, चाहे गलती हो या ना हो ओफ ओ आज फिर से इतना ट्रैफिक देखो तो क्या हुआ है आगे, अच्छा ट्रक खराब है अब तो घन्टा कहीं नहीं गया

अम्मा के पास जमीन पर आलथी पालथी लगाये, उनके हाथों से बना चने का साग और हथेलियों से थपका-थपकाकर चूल्हें पर बनी रोटी खायें ज़माना बीत चला है कितनी बार तो फोन पर कहा अम्मा ने घूम जाओ तो मेरा भी दिल बहल जाये

टें-टें, टें$$$$$$$$$$$$$$ ओफ-ओ जरा भी सब्र नहीं अरे भाई आगे का तो ट्रैफिक बढने दो वैसे भी १० कदम चलकर तो गाङी ने २० मिनट के लिये रुकना ही है इला कि झुनझलाहट अब भी बरकरार थी

यहाँ पिछले ५ सालों से अकेले रहते, वो सब से दूर सी हो गई है ठीक वैसे ही जैसे अपना घर छोङकर लोग विदेश में आकर परदेसी हो जाते हैं उसे टाईम भी तो कहाँ है, इतनी दिक्कत है कि कभी कभी तो हफ्ता गुजर जाता है अम्मा से बात किये

11 comments:

Ashutosh said...

संगीता जी, ऐसे ही सर्फ कर रहा था और आपके ब्लोग पर आ पहुंचा| बहुत अच्छा लगा……

सादर,
आशु

Anonymous said...

सगीता जी बहुत अच्चा लगा

अनुराग said...

अपनी जड़ों से दूर जाने मे दर्द तो होता ही है

Divine India said...

वाह रोजमर्रा के जीवन को सरलता से प्रस्तुत किया है… अच्छा लगा…।

Udan Tashtari said...

बहुत बढ़िया डुबकी लगाई कार चलाते चलाते. यही तो जीवन हो गया है. अच्छा लगा पढ़ कर. आजकल हमारा मूड भी इसी मोड में बह रहा है.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

सँगीता बिटिया,
माँ के हाथ का चने का साग और हाथ से थपकायी रोटीयोँ मेँ स्वर्ग से ज्यादा आनँद है है ना ?
बस ! ऐसे ही कुछ पलोँ के सहारे, हम ज़िँदगी की सारी उलझन सह लेते हैँ
अच्छा लिखा है --
स -स्नेह,
--लावण्या

प्रवीण परिहार said...

देनिक दिक्कतों को इतनी सरल शब्दों में व्यकत किया है आपने, बहुत बढीया। आपकी यही लेखन शैली, आपकी हर रचना बार-बार पढने को मजबूर करती है।

Anonymous said...

अच्छी लगी यह पोस्ट। इसे कोई शीर्षक दे दीजिये।

ghughutibasuti said...

बहुत ही सुन्दर लेख लिखा है आपने । आज क्या मैं क्या प्रवासी दर्द दिवस मना रही हूँ ? यह तीसरी रचना इस ही विषय में पढ़ रही हूँ और तीनों सुन्दर व दिल को छू जाने वाली हैं ।
घुघूती बासूती

Yatish Jain said...

"अम्मा के पास जमीन पर आलथी पालथी लगाये, उनके हाथों से बना चने का साग और हथेलियों से थपका-थपकाकर चूल्हें पर बनी रोटी खायें ज़माना बीत चला है"
बहुत अच्छा

www.yatishjain.com

mamta said...

आज पहली बार आपकी पोस्ट पढ़ रहे है । कम शब्दों मे अपनी बात बखूबी कही है।