Thursday, September 18, 2008

कुछ हायकू

धर्म धर्म है
बनाता इंसा इसे
अधर्म क्यों
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जिहाद क्या
खुदा की इबादद
आंतकवाद
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रमज़ान के
रोज़े की सहरी से
जागी सुबह
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कूङा बीनता
गरीब बचपन
सङकों पर
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महानगर
दौङ रहा आदमी
पैसों खातिर
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बच्चे रोते
चिङिया लाती दाना
कहीं दूर से
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काले बादल
घनघोर घटायें
बरखा लायें
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नहीं भूलते
बचपन के दिन
सच है ना
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रुनझुन से
रीनी के घर तक
फूल क्यों खिले
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चांदनी रात
हमसफर साथ
वाह क्या बात
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तितली उङी
बनकर वो पंछी
डालियों पर
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सर्द सवेरा
ओढकर आई है
शीत की ऋतु
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धूप सुहानी
सुनहरी हलकी
मनवा भावे
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डाके तन को
स्वेटर पहनकर
निकले हम
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देर से आते
जल्दी क्यों छिपते
सूरज तुम
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रेवङी – गुङ
मुंगफली गज्ज्क
खायेगें हम
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10 comments:

Anonymous said...

bahut khub

रंजन (Ranjan) said...

छोटे से मजेदार और गहरे है ये "हा्यकू"

Ashok Chakradhar said...

बहुत ख़ूब संगीता! तुम्हारे हायकू मर्मस्पर्शी हैं। कम से कम शब्दों में अपनी संवेदना को उकेरने में यह शिल्प अत्यंत समर्थ है। तुम्हारे चिंतन का सूत्र व्यापक मानवता से जुड़ा देखकर आश्वस्ति होती है। ख़ूब लिखो।

Ashok Chakradhar said...

बहुत ख़ूब संगीता! तुम्हारे हायकू मर्मस्पर्शी हैं। कम से कम शब्दों में अपनी संवेदना को उकेरने में यह शिल्प अत्यंत समर्थ है। तुम्हारे चिंतन का सूत्र व्यापक मानवता से जुड़ा देखकर आश्वस्ति होती है। ख़ूब लिखो।

Ashok Chakradhar said...

बहुत ख़ूब संगीता! तुम्हारे हायकू मर्मस्पर्शी हैं। कम से कम शब्दों में अपनी संवेदना को उकेरने में यह शिल्प अत्यंत समर्थ है। तुम्हारे चिंतन का सूत्र व्यापक मानवता से जुड़ा देखकर आश्वस्ति होती है। ख़ूब लिखो।

Ashok Chakradhar said...

बहुत ख़ूब संगीता! तुम्हारे हायकू मर्मस्पर्शी हैं। कम से कम शब्दों में अपनी संवेदना को उकेरने में यह शिल्प अत्यंत समर्थ है। तुम्हारे चिंतन का सूत्र व्यापक मानवता से जुड़ा देखकर आश्वस्ति होती है। ख़ूब लिखो।

Kumar Gaurav said...

धूप सुहानी
सुनहरी हलकी
मनवा भावे

खूबसुरत ....है और संवेदनात्मकता तो आपकी हर रचना से निहारती है..

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

gagar mein saagar

BrijmohanShrivastava said...

बहुत छोटी छोटी लाइनों के हाइकू मगर सुंदर

प्रशांत मलिक said...

रेवङी – गुङ
मुंगफली गज्ज्क
खायेगें हम


क्या बात है सुंदर !!!