दो जीवन समान्तर
चलकर भी कभी
बिछुङ जाते हैं
एक नारियल बेचने वाला
अपनी वृत की गोल
परिधी में घूमकर भी कभी
खो जाता है
और वो प्रेमी अपनी
पत्नी और प्रेमिका के
प्रेम मे पङकर
एक त्रिभुज के तीन कोनों में
असंतोष और भय से
बचता हुआ
भटक - भटक कर
थक जाता है
रिश्ते
बदल जाते है कभी
जैसे किन्ही दो
रेखाओं का कोण
किसी आकृति की
रुपरेखा बदलकर उसे
वर्ग से आयताकार बनाकर
उन रेखाओं के बीच की
दूरी बढा देता है
(विजेन्द्र एस. विज़ की पेन्टिंग)
11 comments:
और वो प्रेमी अपनी
पत्नी और प्रेमिका के
प्रेम मे पङकर
एक त्रिभुज के तीन कोनों में
असंतोष और भय से
बचता हुआ
भटक - भटक कर
थक जाता है
बहुत शानदार रचना ! शुभकामनाएं !
बहुत सुन्दर ! सच में सबकुछ बदलता रहता है । दूरियाँ घटती बढ़ती रहती हैं ।
घुघूती बासूती
बहुत सत्य कहा आपने ! खूबसूरत रचना !
वाह! बहुत सुंदर लिखा है.
बहुत ही सुन्दर कविता.
धन्यवाद
Kafi achhi rachna hai.
परिवार व इष्ट मित्रो सहित आपको दीपावली की बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएं !
पिछले समय जाने अनजाने आपको कोई कष्ट पहुंचाया हो तो उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ !
वाह.... ....आपका कहने का अंदाज भी जितना जुदा है ......पेंटिंग ऐसा लगता है जैसा इस कविता का आइना है....बहुत खूब
good poems
very good poetry
Aaj pahli baar aapke blog par aaya hoon , pad kar bahut accha laga.
aapki ye rachna padhkar bahut khushi hui .specially ye wali line :
रिश्ते
बदल जाते है कभी
जैसे किन्ही दो
रेखाओं का कोण
किसी आकृति की
रुपरेखा बदलकर उसे
वर्ग से आयताकार बनाकर
उन रेखाओं के बीच की
दूरी बढा देता है
bahut bahut badhai .
main bhi poems likhta hoon , kabhi mere blog par bhi aayiye.
my Blog : http://poemsofvijay.blogspot.com
regards
vijay
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