Tuesday, October 21, 2008

जीवन एक रेखागणित

दो जीवन समान्तर
चलकर भी कभी
बिछुङ जाते हैं

एक नारियल बेचने वाला
अपनी वृत की गोल
परिधी में घूमकर भी कभी
खो जाता है

और वो प्रेमी अपनी
पत्नी और प्रेमिका के
प्रेम मे पङकर
एक त्रिभुज के तीन कोनों में
असंतोष और भय से
बचता हुआ
भटक - भटक कर
थक जाता है

रिश्ते
बदल जाते है कभी
जैसे किन्ही दो
रेखाओं का कोण
किसी आकृति की
रुपरेखा बदलकर उसे
वर्ग से आयताकार बनाकर
उन रेखाओं के बीच की
दूरी बढा देता है

(विजेन्द्र एस. विज़ की पेन्टिंग)

11 comments:

ताऊ रामपुरिया said...

और वो प्रेमी अपनी
पत्नी और प्रेमिका के
प्रेम मे पङकर
एक त्रिभुज के तीन कोनों में
असंतोष और भय से
बचता हुआ
भटक - भटक कर
थक जाता है

बहुत शानदार रचना ! शुभकामनाएं !

ghughutibasuti said...

बहुत सुन्दर ! सच में सबकुछ बदलता रहता है । दूरियाँ घटती बढ़ती रहती हैं ।
घुघूती बासूती

भूतनाथ said...

बहुत सत्य कहा आपने ! खूबसूरत रचना !

शोभा said...

वाह! बहुत सुंदर लिखा है.

राज भाटिय़ा said...

बहुत ही सुन्दर कविता.
धन्यवाद

श्रीकांत पाराशर said...

Kafi achhi rachna hai.

ताऊ रामपुरिया said...

परिवार व इष्ट मित्रो सहित आपको दीपावली की बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएं !
पिछले समय जाने अनजाने आपको कोई कष्ट पहुंचाया हो तो उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ !

डॉ .अनुराग said...

वाह.... ....आपका कहने का अंदाज भी जितना जुदा है ......पेंटिंग ऐसा लगता है जैसा इस कविता का आइना है....बहुत खूब

azad said...

good poems

azad said...

very good poetry

vijay kumar sappatti said...

Aaj pahli baar aapke blog par aaya hoon , pad kar bahut accha laga.

aapki ye rachna padhkar bahut khushi hui .specially ye wali line :
रिश्ते
बदल जाते है कभी
जैसे किन्ही दो
रेखाओं का कोण
किसी आकृति की
रुपरेखा बदलकर उसे
वर्ग से आयताकार बनाकर
उन रेखाओं के बीच की
दूरी बढा देता है

bahut bahut badhai .

main bhi poems likhta hoon , kabhi mere blog par bhi aayiye.
my Blog : http://poemsofvijay.blogspot.com


regards

vijay