Saturday, January 22, 2022

रोज़ मेरे किचन की खिड़की में

आती है एक गिलहरी और दो कबूतर

कुछ टुकड़े रोटी के लिए

मैं भी एहतियातन रख देती हूँ

कैसेरोल में बचाकर

एक रोटी हर रोज रात को

 

आज फिर दिखा वह अधेड़ आदमी

हांफता हुआ सा

साइकिल पर पैडल मारते

घर की ओर जाते  हुए

 

हम जल रहे है एक-एक स्क्वायर फिट

हर रोज़

अमेज़न के जंगलों से

सोना मिल भी जाए तो क्या

 

 

हम पिघल रहे है एक-एक आउन्स

हर रोज़

आर्कटिक में जमे ग्लेशियर से

तरक्की हो भी जाए तो क्या

 

मेरा बेटा शेखू समझ बैठाता है

दूर अरावली के  पहाड़ो को

डमंयाड शहरों का

 

आज फिर दिखा

सपने में लेकिन

वही अधेड़ आदमी हांफता सा

साइकिल के पैडल को तेज़-तेज़ मारता

झक सफ़ेद साफेकुर्ते और धोती में इस बार

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