Wednesday, November 05, 2025

मेरी बस्तर यात्रा

रायपुर तो दो दिन का ही काम था तो फिर निकल पड़े बस्तर की यात्रा पर, कार्यक्रम पहले से ही निर्धारित था, कहाँ कहाँ जाना है, और क्या क्या देखना है.. तो ज्यादा दिमाग लगाने की जहमत नहीं उठाई गयी. वैसे भी यात्राओं में दिमाग ना ही लगाया जाए तो वो खूबसूरत यादों में तब्दील हो जाती हैं ये मेरा निजी मत है.. मैं तो साथ थी सफर का मज़ा लेते हुए। . हरे हरे जंगलों के बीचों बीच निकलता सूरज, बारिश, ठंडी हवा मन किया सारा ऑक्सीजन कैद कर लूँ... काश कोई मशीन ले गयी होती जिसमें ऑक्सीजन भर लेती और फिर लौटकर अपने शहर पीती घूंट भर हर रोज़ तो हमारे पास तीन दिन थे, अब बस्तर इतना बड़ा है की तीन दिन क्या टीन हफ्ते भी होते तो शायद कम ही पड़ते.. अब ये हम कॉर्पोरेट वाले सब जगह बार्गेन करके चलते हैं.. फिर भी तीन दिन के हिसाब से आइटिनररी बनाई गयी.. पहला दिन था जगदलपुर के लिए, और स्पॉट जो देखने थे वह थे तीन बस्तर पैलेस, दंतेश्वरी मंदिर, दलपत सागर लेक. तो शुरुआत बस्तर पैलेस सी की गयी.. अभी तक मैंने जयपुर और उदयपुर के पैलेस देखे थे तो बस्तर पैलेस को देखना उन सब से जुदा था.. आदिवासियों के राजा का घर.. बहुत ही साधारण सा दिखने वाला महल, ईट गारे से बना, सफ़ेदी पुता लगभग हम लोगों के घरों से मिलता जुलता, बस बहुत बड़े इलाके में फ़ैला हुआ...
बस्तर के आखिरी राजा प्रबीरचंद्र भंजदेव का बहुत बड़ा फोटो अहाते में ही लगा है जहाँ लोग आज भी उनको आकर प्रणाम करते हैं और उन्हें भगवान की तरह पूजते हैं.. उन्होंने अपने जीते जी वहाँ के लोगों के लिए बहुत कुछ किया और वहां के आदिवासियों के साथ कन्धा से कन्धा मिलाकर जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ी ..कई लोगों का ये भी मानना है की राजा की हत्या के बाद ही बस्तर में नक्सलवाद बहुत फैला...
वहाँ से निकलकर हम पहुँचे हाट / बाज़ार, इत्तेफाक से उस दिन वहां का साप्ताहिक बाज़ार था.. weekly market , दिन भी सोमवार था.. तो मेरा मंडे मार्किट का शेड्यूल भी मिस नहीं हुआ :-) यहाँ था महुआ, इमली, कसावा की जड़ और उससे बनी बर्फी, दाल से बनी बड़ियाँ, गुड़ से बने गुलगुले, मूंग दाल वड़ा, और वो सब कुछ जो अमूमन सभी साप्ताहिक बाज़ारों में होता है, थोड़ा बहुत सभी कुछ खाकर देखा गया और घर के लिए लिया गया महुआ और बड़ियाँ ... वहां के लोगों को भ्रम हुआ की हम लोग रायपुर से आये हैं फिर हमने बताया की नहीं हम दिल्ली से आये है.. बहुत ही सीधे साधे लोग, ऐसा लगा की किसी और दुनिया के हैं शायद, अमूमन सभी दुकानें औरतें ही चला रहीं थी.. हिंदी ज्यादा नहीं समझतीं, बहुत कुछ पूछने पर खिलखिला कर हँस पड़ती।।। मुझे भी ये समझने में समय लग रहा था की वो क्या कहना चाह रहीं थीं.... जितना बाज़ार घूम सकते थे घूम घाम कर अगले स्पॉट पर जाने की तैयारी में आगे निक पड़े, तब तक शाम के पांच बज चुके थे.. चाय की तलब अब ज़ोर पकड़ रही थी.. तो बीच में रुक कर चाय पी गयी.. चाय पी-पा कर माँ दंतेश्वरी देवी के मंदिर की तरफ रुख किया गया..
मंदिर प्रांगण में प्रवेश से पहले, विशालकाय रथ के निर्माण का कार्य को देखा, और उसके इतिहास से अवगत हुए. यदि हम यहाँ नहीं आये होते तो शायद कभी नहीं मालूम कर पाते.. किताबों में तो बहुत कुछ होता है.. हम बहुत कुछ जान भी पाते हैं लेकिन इतना कुछ घूमने और उस जगह में जाने के बाद ही पता कर पाते हैं.. इसलिए घूमना और वहां को समझना कितना रोमांचकारी होता है.. हाँ तो रथ पर आते हैं.. रथ का कनेक्शन सीधे सीधे जगन्नाथपुरी से है.. १५वीं. शताब्दी में बस्तर के महाराजा राजा पुरुषोत्तम देव, जोकि भगवान जगन्नाथ जी के परम भक्त थे, नगें पाँव बस्तर से पुरी गए.. भगवान उनकी भक्ति से प्रसन्न हुए और पंडित जी को आदेश दिया की उन्हें १६ पहियों वाला रथ उपहार स्वरूप दिया जाए.. राजा उपहार लेकर बहुत धन्य हुए.. बस्तर में दशहरा रावण को जलाकर नहीं मनाया जाता.. रथ यात्रा निकालकर मनाया जाता है.. समय के साथ रथ १६ पहियों का ना रहकर ४ और ८ पहियों का रह गया (जगह नहीं होने की परेशानी से).. और बाकी के ४ पहियों वाला रथ जो उन्हें उपहार में मिला था आज भी मंदिर के प्रांगण में मौजूद है.. तो ६०० साल पुरानी परंपरा को निभाते हुए नवरात्री के पहले दिन से सभी गांव के आदिवासी समुदाय अपने-अपने जंगलों से लकड़ी लेकर आते हैं और रथ बनाने में लकड़ी दान करते हैं, जो पूरे ९ दिन तक रथ के बनने में काम में आती हैं , और फिर १०वें दिन यानि दशहरे वाले दिन माँ दंतेश्वरी देवी को स्वरुप मानकर मंदिर से निकलकर पूरे इलाके में रथ यात्रा निकाली जाती है...जिसमें लाखों लोग शामिल होते हुए माँ के प्रति अपनी आस्था, प्यार और समर्पण प्रदर्शित करते हैं.. यह सब सुनना बिलकुल ऐसा लगा जैसे कोई कहानी सुना रहा हो.. लेकिन ये कहानी न होकर सत्य थी..
वहां से निकलकर मंदिर के अंदर प्रवेश किया गया.. मंदिर के अंदर फोटो लेना वर्जित था.. इसलिए मंदिर के अंदर की कोई तस्वीर नहीं है... माँ की मूर्ति काले पत्थर से बनी है जो बिना किसी जोड़ के बहुत ही अलौकिक है.. सिर्फ एक ही बहुत विशाल पत्थर पर नक्काशी से उकेरी गयी है... ५१ शक्ति पीठ में से यह स्थान भी शक्ति पीठ में शामिल है.. ऐसी मान्यता है की पौराणिक घटना के अनुसार माँ सती के सती होने के पश्चात्, भगवान विष्णु द्वारा उनके अंश को विभाजित किया गया और इसी दौरान उनका दांत यहाँ आकर गिरा था, इसलिए इस मंदिर को दंतेश्वरी मंदिर के नाम से जाना जाता है और दंतेवाड़ा शहर का नाम भी मंदिर के नाम पर रखा गया है.. यह एक सुन्दर इत्तेफाक ही था की हम लोगों का वहां पहुंचना भी नवरात्रि के पहले दिन हुआ.. मंदिर खूब सजा हुआ था.. जो छोटी छोटी lighting से जगमगा रहा था.. कुछ समय वहां बिताने के बाद आगे का सफर किया गया..
तब तक रात के ८ बज चुके थे और हिम्मत भी जवाब दे रही थी इसलिए दलपत सागर लेक के दर्शन बाहर से ही कर लिए.. समय ज्यादा हो जाने की वजह से नौका विहार का आनंद नहीं ले पाए.. दलपत सागर झील भी, जैसी सभी झीलें होती हैं वैसी ही थी.. लेकिन ये प्राकृतिक झील न होकर, मानव निर्मित झील है, जिसका निर्माण १७वीं शताब्दी में बस्तर के राजा दलपत देव ने, बारिश के पानी को एकत्रित करने के लिए करवाया था.. ये झील लगभग ३५० एकड़ में फैली हुई है.. अब अँधेरा भी घिर आया था तो आगे का सफ़र जहाँ रुका जाना है वहीँ के लिए था. भूख भी लग रही थी.. तो बस यही था कि जल्दी से जल्दी गंतव्य पर पंहुचा जाए और पेट पूजा की जाए, आज की यात्रा को एक बार फिर दिमाग में संजोया जाए और फिर कल की यात्रा को लेकर उत्साहित हुआ जाए.. यही सब सोचते सोचते हम लोग गेस्ट हाउस पहुंच गए.. बाहर घुप अँधेरा था.. दूर दूर तक कुछ नज़र नहीं आ रहा था.. लेकिन बहुत तेज़ पानी की आवाज़ मन में हलचल पैदा कर रही थी.. नदी नहीं वह तो एक विशाल झरने की आवाज़ थी रात की समय ये आवाज़ मुझे तो थोड़ा डरा भी रही थी.. तो हम लोग थे चित्रकोट रात यहीं बितानी थी, मुझे सुबह का बेसब्री से इंतज़ार था की कितनी जल्दी सुबह हो और मैं इस विशाल जलप्रपात के दर्शन कर पाऊं. सुबह हुई तो सबसे पहले खिड़की का पर्दा हटा कर देखा, आंखे खुली की खुली रह गयी.. कितना सुन्दर, विशाल जलप्रपात था.. और हम उसके कितने नजदीक रुके हुए थे, बिना देरी किये सीधे नीचे पहुंच गई उसको और करीब से देखने और महसूस करने.. मन में यही ख्याल आया की हम कितने सूक्ष्म हैं प्रकृति के सामने... चित्रकोट जलप्रपात, इंद्रावती नदी पर स्थित है, इसको भारत का नियाग्रा भी कहा जाता है जो लगभग ३०० मीटर चौड़ा और ९० मीटर ऊंचाई से गिरता है.. इन दिनों बरसात के समय की वजह से पानी मटमैला था.. और पानी का बहाव बहुत तेज़ था नहीं तो यहाँ नौका विहार भी किया जाता है.. पानी की रफ़्तार की वजह से आवाज़ बहुत तेज़ थी मैंने पानी की आवाज़ को ये महसूस करना चाहा की जब कभी नदी में बाढ़ आती है और गांव के गांव को बहा ले जाती है तो लगभग ऐसी ही आवाज़ होती होगी.. अंदर तक सिहरन दौड़ गयी.. वहां थोड़े बहुत फोटो लिए.. ज़्यादा समय नहीं होने की वजह से कुछ ही देर चित्रकोट को निहारा गया.. मन तो यही था की घंटो यहीं बैठ के नदी को और नदी के गिरते पानी को देखा जाए.. लेकिन अफ़सोस समय इन सबकी मौहलत नहीं दे रहा था..
नाश्ता पानी कर के आगे का रुख किया गया.. ये पता था की आगे आने वाली जगह भी एक जलप्रपात ही है.. जिसको हम लोग बहुत करीब से देखने वाले थे.. जो चित्रकोट में करने से चूक गया था वह यहाँ पूरा होने वाला था.. बहते पानी को करीब से देखना, उसके साथ खेलना, छूना और महसूस करना ... तो बस यही सोच रही थी की कितनी जल्दी वहां पहुंच जाएँ दूसरा दिन निर्धारित था, तीरथगढ़ वाटर फॉल्स, गांव घूमने और लोकल खाना खाने के लिए.. तो हम लोग भर पेट नाश्ता करके तीरथगढ़ को निकल पड़े.. रास्ते में पड़े बहुत बड़े बड़े जंगल.. रह रह कर सुशील शुक्ल जी की कविता, "पेड़$$$ पेड़ नहीं तुम दर्जी, तुमने ही तो सिले घोंसले कितनी सिली हवाएं, याद आता रहा और मौके की नज़ाकत को समझते हुए मैंने धड़ से स्टेटस मैसेज भी डाल दिया .... बीचों बीच सड़क, वैसे कई जगह गड्ढे भी थे और सड़क के दोनों ओर लम्बे लम्बे पेड़, पेड़ो से छनती धूप, आगे चलने पर बारिश, गाड़ी का शीशा नीचे किया और ठंडी हवा का लुफ़्त लिया.. मुँह पर पड़ती बारिश की बूँदें थोड़ी तेज़ लग रहीं थी.. ये भी एक तरह की facialmassage ही थी.. रास्ता इतना अच्छा था की कब कटा पता नहीं लगा.. दूर पठार नुमा पहाड़ भी दिखाई पड़ते, हरे रंग के कितने शेड्स हो सकते हैं वो सब लगभग दिख गए.. मिट्टी का रंग लाल था,
यदाकदा बीच में कोई गांव भी पड़ जाता, बच्चे खेलते दिखते, बकरी चराते, खेतों में काम करते लोग... बस थोड़ी ही देर में हम अपने गंतव्य पर थे.. वाटर फॉल गाड़ी जहाँ पार्क की वहां से लगभग ५०० मीटर की दूरी पर था सपाट रस्ते से आगे नीचे की तरफ सीढ़ियां थी.. जो फॉल्स तक ले जाती हैं. पूछने पर पता लगा की होंगी कोई २००-२५० सीढ़ियां... नीचे नीचे जाने पर दूर से ही तीरथगढ़ वाटर फॉल हमारे सामने था.. ये वाटरफॉल कांगेर और मुंगा बहार और कई सहायक नदियों से मिलकर बनता है.. और ये घाटी कांगेर घाटी के नाम से जानी जाती है, ये बात वापस आने पर पता लगी की झरने के ठीक ऊपर एक शिवालय भी बना है और इस स्थान को तीर्थ स्थल के रूप में भी जाना जाता है.. जलप्रपात से गिरता पानी दूध जैसा सफ़ेद मालूम पड़ रहा था.. और ठंडा था.. घाटी के पत्थर सीढ़ी नुमा थे ऐसा लगा किसी ने काट काट कर सीढ़ी जैसा बनाया है, इतना मोहक दृश्य की लगा स्वर्ग ऐसा ही होता होगा.. बहुत से लोग वहां फॉल के नीचे गिरते पानी का मज़ा ले रहते थे.. अब हम कपड़े नहीं लाये थे सो भीग जाने के डर से आजू - बाजू समेटे जितना मज़ा ले सकते थे लिया.. लेकिन विहान ने खूब मज़ा किया.. उसके जेहन में ये यादें, बहुत अच्छी यादें बनकर हमेशा कैद रहेंगी.. करीब २-३ घंटे वहां बिताने के बाद आगे का रुख किया गया..
समय कम था सो इतना ही समय तीरथगढ़ फॉल्स में बिता पाए.. अब तक दिन का समय भी हो चला था तो भूख भी लगने लगी थी.. आगे का सफर धुरवा जनजाति के घर जाने का था.. हम लोगों का लंच वहीं था.. धुरवा आदिवासी जनजाति बस्तर क्षेत्र में रहती है.. गांव से १०० मीटर की दूरी पर उन्होंने छोटा सा होम-स्टे बनाया है जंगल के बीचो-बीच, रामायण की अशोक वाटिका जैसी.. खाने का इंतज़ाम वहीं था.. नीचे चटाई में आलती - पालथी मार कर खाना खाया.. खाने में था - बांस के कोमल डंठल सूखे मटर के साथ, भात, पपीते की सब्ज़ी, भिंडी और अरहर दाल.. और सभी खाना पत्तों से बने दौंनों में था.. मेरा बड़ा मन था की लाल चींटी की चटनी भी होती तो खाया जाता की कैसा स्वाद होता है.. पूछने पर पता चला की बारिश की वजह से पेड़ पर नहीं चढ़ पाए.. वो अपना घोंसला पत्तियों को एक साथ बुनकर पेड़ों पर बनती हैं.. शायद उन लाल चीटियों को देख कर मैं उनकी चटनी नहीं खा पाती.. लेकिन एक बार अनुभव तो करना बनता ही है.. बाकी सब खाना बहुत स्वादिष्ट था.. एकदम सिंपल.... ऐसा खाना खाकर आत्मा तृप्त हो गयी.. खाना खा कर गांव घूमा गया..
ये बड़े बड़े इमली के पेड़ इतने बड़े इमली के पेड़ पहली बार ही देखे थे.. कुछ पेड़ों से इमली तोड़ लिए घर ले जाने के लिए.. कच्ची इमली का आकर बहुत बड़ा था.. कुछ घरों में बकरियां थी और कुछ ने मुर्गियां पाल रखी थी.. घर लगभग कच्चे ही थे .. और उनमें रहने वाले लोग बहुत पक्के.. मालूम करने पर पता लगा की गांव में कोई सरकारी यातायात की सुविधा नहीं है.. लाइट तो है लेकिन नल से पानी नहीं आता, पानी के लिए नीचे की तरफ़ बहने वाली नदी की ओर जाना होता है.. गांव में कोई स्कूल या फिर अस्पताल भी नहीं है.. मेरे मन में यही ख्याल कौंधता है की यह कितनी बड़ी विडम्बना है की इन आदिवासियों की जमीन, जंगल लेकर हम अमीर होते जाते हैं और बदले में उनको मूलभूत सुविधाएं भी नहीं दे पाते.. गरीबी तो बहुत है.. और रोजगार कुछ नहीं... जो दिल खाना खाकर और उनकी आवभगत से खुश था अब थोड़ा ग़मगीन सा हो गया था.. यादगार के तौर पर गांव के लोगों की तस्वीरे लीं.. खाते-पीते, गांव में टहलते शाम हो चुकी थी.. और जल्द ही अँधेरा भी होने वाला था.. तो वहाँ से निकलने का सोचा गया..
आज की रात गोदम में बितानी थी.. खाना रास्ते से पैक करा के यथा स्थान पंहुचा गया.. बस अब कल का आखिरी दिन बचा था और कल ही दिन तक सभी को अपनी अपनी ट्रैन, और फ्लाइट पकड़नी थी.. तो तीसरे दिन का सिर्फ २-४ घंटे ही थे जो कहीं बिता सकते थे तो सोचा उसको थोड़ी शॉपिंग के लिए रख लेते हैं.. तीसरे दिन सुबह ६ बजे जग कर, तैयार होकर, नाश्ता रास्ते में करेंगे बोलकर निकल लिए.. जहाँ कहीं दुकानें दिखतीं गाड़ी रुकवाकर तोड़ा कुछ खरीद लिया जाता.. और इस बीच नाश्ता भी किया गया.. बस अब सभी साथियों और बस्तर से जुदा होने का समय आ गया था.. रास्ते भर खूब गप्पें हुईं, कुछ काम की कुछ बे-काम की भी, कई दिलचस्प कहानियों को अपने अपने अंदाज़ में बनाया गया.. दर्ज़ी का दर्ज़ियांना से लेकर लकी कछुआ :-) कई लोगों के और क्या क्या खूबसूरत नाम हो सकते हैं उन पर चर्चा की :-) कुल मिलाकर हमारे सहयात्री बहुत ही कमाल के थे और बीच बीच में उनकी संगत से मेरा भी ह्यूमर हिचकोले खाता बाहर आ ही जाता...
कुछ मिलकर ये सब लिखते हुए मेरे लिए ये तीन दिन फिर से जीवंत हो गए.. बस्तर आना जल्दी हो यही दुआ करती हूँ, जो-जो देखना रह गया वो सब देखने की उम्मीद से और कुछ दिन गांव में रहकर इलाके को और समझने को.. आशा है आप को भी उतना ही मज़ा आएगा जितना मुझे घूमने और फिर लिखने में आया..

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