Monday, July 04, 2022

धूप

एक टुकड़ा धूप

आया है कई दिनों बाद

मेरे चौकोर आँगन में

 

मैं चटाई अपनी  सरका रही हूँ

धीरे धीरे

जहाँ जहाँ वो चलता है अनवरत

 

सुबह से शाम हो  जाती है

रुक क्यों नहीं जाता कुछ और

घंटो के लिए आज

 

तुम धूप क्यों नहीं बन जाते

फिर कल आऊंगा बोलकर

देह पर पड़कर,

सख्त हो गई  हड्डियों में

कुछ देर ठहर जाने को

 

ओढ़कर तुम्हें बैठूँगी कुछ देर

गर थक गयी तो सुस्ता लूँगी

टाँगे फैलाये बेधड़क

 

देखो ना

गमले पर लगे फूल भी

मुरझा रहे हैं मेरी तरह

तुम जाया करो हर रोज़

तयशुदा वक्त पर बिना नागा किये

धूप !

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