Monday, February 13, 2006

खिडकियाँ...

मैं अनजान था
शायद

मेरी दुनियाँ के घरों कि
खिङकियों पर हमेशा
एक झीना, रुपहेला

परदा टंगा रहता था

उसकी
दूसरी तरफ

तुम्हारी छवि
कुछ धुंधली
नजर आने पर भी
मुझे पहचान में
आती रही

तुम अक्सर
किसी अप्सरा की तरह
अचानक से आकर
फिर
बोझिल हो जाती

और तब मैं उसे
अपनी नींद में
आने वाले किसी
सुखद सपने की तरह
भूलकर
फिर काम मे लग जाता

मुझे याद है
शायद मैं गलत नहीं
ये सिलसिला
तब तक चला
जब तक उन
खिडकियों पर
वो झीने रुपहले पर्दे थे

1 comment:

Rati said...

wow, kya likh rahi ho
dono badhiya he
chalo jaldi se kritya ke liye bhejo

Rati