भाग (2)
आफिस मे कैसे दिन गुजरा अहसास तक ना हुआ...जब अम्मा इला के पास आई थी, तब दिन मे एक बार तो फोन जरूर आ जाया करता था... या तो लंच से ठीक पहले या ठीक उसके बाद, खाना खाया की नही और अगर गलती से भी देर हुई तो अम्मा का वही उसे डाँटना, फिर वो झुंनझलाहट मे सिर्फ इतना ही कह पाती, ओफ ओ अम्मा तुम भी ना कहीं भी शुरु हो जाती हो.... अभी आफिस में हूँ थोङा काम था सो नहीं कर पाई.... अच्छा ठीक है जल्दी से कर लो, काम होता रहेगा इतनी मेहनत भला किसके लिये करती हो।
मुश्किल से 15 मिनट होते नहीं कि फिर से फोन और इस बार भी घर से हैं, जरूर अम्मा का होगा। फोन उठाते ही इला बोली कर लिया अम्मा, सब्ज़ी बहुत स्वाद थी। तब जाके अम्मा को सूकुन मिलता।
अच्छा ये बता रात मे क्या खायेगी?
कुछ भी बना देना तुम्हारे हाथ से बना तो सब अच्छा लगता है।
लेकिन देखो ना... आज सुबह लेट हो गया, ऊपर से काम बहुत, बस इसी चक्कर मे आज लंच करना ही भूल गई, चलो अब रात में ही खाया जायेगा।
इस शहर के ट्रैफिक ने तो नाक़ में दम कर रखा है सुबह तो होता ही है, शाम को भी चैन नहीं....बस मशीन की तरह चलता रहता है... सारी एनर्जी आफिस और घर पहुँचने में ही लग जाती है। कभी कभी सोचती हूँ सब कुछ छोङकर अपने गाँव चली जाँऊ वह इतना भी अनडैवलप नहीं।
अभी कुछ दिन पहले ही पङोस के गुप्ता जी अम्मा को बोल रहे थे, क्या कर रही ही है इला वहाँ अकेले रहकर... उसे कहो वापस आ जाये, काम ही करना है तो मैं उसे अपने स्कूल मे लगवा दुगाँ।
चलो घर तो पहुँची, वही उदासी, एंकात, बेचैनी, घुटन और उबकायी सुबह से कुछ नहीं खाया लेकिन भूख तो शायद मर ही गई है, ना दिन मे लगती है ना रात में... अम्मा को कई बार बोला आ जाओ तुम ही मेरे पास, लेकिन हमेशा एक ही मजबूरी... कैसे आ जाऊँ बिटिया यहाँ पपा और इस घर को कौन देखेगा। कई बार लगता है एक घर के दो बंटवारे हो गये है। अब दो चूल्हे जलते है, दो मंदिर है, दो जगह त्योहार मनाये जाते है। लेकिन वही उदासी, एंकात, बेचैनी, घुटन और उबकायी दोनों जगह चौकङी जमाये मुँह चिढाती है।
3 comments:
बहुत गहरा उतर रही हो संगीता जिन्दगी के चक्र के फलसफे में. गजब लिखा है पूरे बहाव के साथ. मजा आ गया और उतना ही दिल भर आया..आगे और लाओ इस कड़ी मे. इसे खत्म मत करना जल्दी. :)
सुख की तलाश में इंसान कहां-कहां नहीं भटकता.कभी गांव तो कभी शहर.न अब पहले जॆसे गांव हॆं ऒर न ही शहर.वास्तव में सुख के स्रोत हमें अपने अन्दर ही तलाशने होंगें. शहरी कोलाहल के बीच,सुख के कुछ पलों की चाह-अच्छा चित्रण किया हॆ आपने.फिर भी,मॆं तो यही कहूंगा-
"हम यह जानकर बहुत सुखी हॆं
कि दुनिया के ज्यादातर लोग
हमसे से भी ज्यादा दु:खी हॆं"
.....पूरी कविता पढने के लिए कभी मेरे ब्लाग पर आईये,स्वागत हे आपका.
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