Monday, August 04, 2008

"मेरी दोस्त मंजू"

पिछले दिनों चोखेर बाली में लडके-लङकी की क्लासिफिकेशन मे कई बातें ऐसी उजागर हुई जो ये आज भी सिद्ध करतीं हैं कि हम चाहे कस्बे में रहे या एक विकसित शहर में, या फिर विकाशील राज्य का हिस्सा हों. कुछ नियम कानून लङकियों के लिये तय से हैं, मॉर्डनाइस सोच के पीछे जरूरी नहीं कि हम तुलनात्मक ना हों या फिर जो जैंडर क्लासिफिकेशन है वो करना छोङ दें. शायद ये समाज जो मर्दों द्वारा, मर्दों कि सहुलीयत और मर्दों कि शर्तों पर ही चलता है. खैर छोङिये, ये बात तो जग जाहिर हैं.

बात शादी को लेकर याद आ रही है तो सोचा आप सबसे भी बाँटू.
मेरी दोस्त मंजू, हम साथ एक बस में रोज़ आफिस के लिये आते-जाते थे, बस उसी दौरान उससे जान पहचान हुई और वो मेरी दोस्त बन गई फिर बातों का सिलसिला आगे बढा और मालूम हुआ कि वो अपनी शादी को लेकर परेशान है, क्योंकि उसके माँ-पापा को अपनी बिरादरी मे काबिल लङका नहीं मिल रहा, या शायद वो ज्यादा पढलिख गई है. रिश्ते तो कई आते लेकिन सभी में कोई ना कोई बदिशें होती जैसे वो शादी नहीं कोई कोन्ट्रैक्ट साईन करा रहे हों.

मंजू बहुत शांत स्वभाव की, पेशे से इन्टिरियर डैकोरेटर, समझदार, संवेदनशील और एक जिम्मेदार लङकी थी. दो बहनों और भाईयों के बीच सबसे बढी होने कि वजह से थोङी जिम्मेदारियाँ उस पर भी थीं. वो भी अपने मन मुताबिक अपना जीवन साथी चुनना चहती, लेकिन कभी घर वालों तो कभी समाज का सोचकर अपने विचार को बदल लेती और सिर्फ इतना ही सोच पाती कि घर वालों के मन मुताबिक और उनके बताये लङके के साथ ही उसे अपनी पूरी जिन्दगी गुजारनी होगी. बहुत जद्दोजहद के बाद एक रिश्ता आया, लङका पेशे से सिविल इंजिनियर था. यहाँ पर वो खुश थी कि कम से कम लङका पढा लिखा तो है, क्योंकी घर वाले तो सिर्फ शादी करना चाहते थे और कई बार ऐसे रिश्तों मे भी हामी भर आते जहाँ लङका चपरासी होता या फिर किसान.

इंजिनियर लङके के परिवार वालों को भी लङकी पंसद आ गई, खुले-आम दहेज कि मांग ने मज़ू को थोङा दुखी कर दिया. लङके वालो की दलील थी कि लङके को पडाने लिखाने में कई खर्चे हुये हैं और फिर जो भी आप दोगे आपकी बेटी के लिये ही होगा, जिसका उपयोग उसी को करना है. घर वाले पहले तो सोचते रहे कि इस रिश्ते को भी मना कर दिया जाये, लेकिन फिर वही ख्याल घर कर लेता कि अगर फिर से कोई अच्छा रिश्ता नहीं आया तो क्या करेगें. इसलिये कैसे भी करके दहेज़ कि डिमांड को स्वीकार लिया गया. बात गाङी माँगने से मोटर-साइकिल पर आकर खत्म हुई और अप्रैल मे मंजू कि शादी हो गई, हम लोग भी उसकी शादी में शामिल हुये.

वो शादी को लेकर खुश नहीं थी लेकिन इस बात का इतमिनान था कि माँ - पापा का बोझ कम हो गया है. वो अच्छा कमाती थी, माँ - पापा का ख्याल रखती, घर के अहम फैसलों पर अपनी राय देती, पापा से लाड करती, छोटे भाई - बहनों कि जरूरतों का ध्यान रखती फिर भी वो अपने को अपने परिवार पर एक बोझ जैसा महसूस करती.

शादी होने के बाद उससे सिर्फ एक बार बात हुई पूछने पर मालूम हुआ की ठीक है, यहाँ अपने देवर और पति के साथ रहती है. घर संभाल लिया है, और आफिस भी ठीक चल रहा है. माँ - पापा से मिल लेती है, ससूराल वाले ज्यादा खुश नहीं क्योंकी मन मुताबिक दहेज़ जो नहीं मिला था. देवर का व्यवहार ठीक नहीं, ताने देता है और पति उसे या अपने घर वालों को कुछ नहीं कह पाते, सिर्फ मंजू को सांत्वना दे देते है

फिर उसने मुझे जून में फोन किया मेरे जन्मदिन पर, मुझे विश करने के लिये. आवाज़ में थोङा भारीपन होने कि वज़ह से बहुत बार पूछने पर बताया कि तबियत ठीक नहीं है, बुखार है दो दिन से इसलिये आफिस भी नहीं जा सकी. दो दिन बाद उसकी छोटी बहन का फोन आया कि मंजू नहीं रही. मैं सकते में थी ऐसा कैसे हो सकता है, अभी दो दिन पहले ही तो बात हुई थी उससे. उसके घर गये तो पता लगा कि शादी के बाद ही वो बीमार हो गई थी और कई दिनों तक माँ के घर ही रही, उसके ससूराल वालों ने एक बार भी उसे अपने पास रखने कि जहमत नहीं उठाई. ठीक होने पर वो वापस चली गई थी और बेहतर थी, अभी एक हफ्ते से ही वायरल था लेकिन पता नहीं ऐसा क्या हुआ कि वो नहीं रही. उसकी माँ ने बताया आज शाम ५ बजे फोन पर बात हुई तो बता रही थी कि पडोस कि भाभी के घर बैठी है और ठीक है, पङोस कि भाभी से मालूम हुआ कि मंजू एकदम ठीक लग रही थी और कह रही थी कि कल से आफिस ज्वाईन करेगी और करीब ७ बजे अपने घर के वापस अपने घर चली गई क्यों की उसका देवर आ गया था. रात ८ बजे मंजू के घर फोन जाता है कि वो बहुत तेज़ बुखार में है, उसे कोई दवा दे दी है लेकिन वो बुरी तरह कांप रही है इसलिये अस्पताल ले जाया जा रहा है, अस्पताल पँहुचने से पहले ही उसने दम तोङ दिया

वो आज हमारे बीच नहीं है लेकिन सिर्फ यादे हैं जो एक टीस पैदा करती हैं कि क्या लङकी का जीवन ये सब भोगने के लिये ही होता है. क्या सच लङकी होना एक पाप करने जैसा है?? जिसकी सजा अकसर भुगतनी होती है. हर कदम पर कुछ ऐसा जरूर हो जाता है जो ये अहसास दिलाता है कि हम लङकी हैं और उससे ज्यादा कुछ नहीं.
आज वो जहाँ कहीं भी हो दुआ करती हूँ कि खुश और खुशहाल हो. आमीन!!

8 comments:

Nitish Raj said...

इनर वॉयस में आपने बहुत दिन बाद कुछ लिखा या मैंने ही बहुत दिन बाद पढ़ा। आपने जो बात कही है वो बताती है कि अगले जन्म मोहे बिटिया ना दीजो...। मैं बार-बार कहता हूं कि सिर्फ स्टेडी याने शिक्षा ही है जो कि इन सब वाक्यों से बचा सकती है। लेकिन ये पहल सिर्फ लड़की की तरफ से ही नहीं लड़के भी पढ़ाई पर ध्यान दें और दकियानूसी बातों को दूर करें। वरना ये वहशी सिलसिला यूं ही चलता रहेगा। लिखते रहें।

Rajesh Roshan said...

These are sheerfull sterotype thoughts

Unknown said...

संगीता जी, चोखेरवाली पर आपकी इस पोस्ट पर मैं अपनी राय दे चुका हूँ. यहाँ मैं यह कहना चाहता हूँ कि आप एक बहुत ही अच्छे व्यवसाय, मानव संसाधन से जुड़ी हैं. नारी सशक्तिकरण आपके कार्य का एक हिस्सा ही तो है. आप बहुत कुछ कर सकती हैं. जो नारियां शिक्षित हैं, जिनका सोच सही है, वह दूसरी नारियों के लिए बहुत कुछ कर सकती हैं. ब्लाग्स पर तो बहुत कुछ लिखा जा रहा है. कुछ अशक्त नारियों की मदद भी की जाए. तभी नारी जाति की प्रगति सम्भव है.

संगीता मनराल said...

आप सच कह रहे हैं सुरेश जी, कोशिश जारी है देखिये सफलता कब तक मिलेगी|

Manish Kumar said...

समस्या तो है पर नारी अगर नारी का साथ दे तो स्थिति इतनी विकट नहीं होगी। शायद रहन सहन और शिक्षा के बढ़ते स्तर से कुछ सोच में बदलाव आए।

Udan Tashtari said...

बहुत मार्मिक. मगर ऐसी कितनी ही मंजूओं की कहानी इससे कहीं ज्यादा दर्द लिए रोज रची जा रही है. कुछ सार्थक पहल करनी होगी. इस दिशा में आपका आलेख भी एक चेतना जगायेगा.

ghughutibasuti said...

संगीता जी, बहुत दिन बाद आप नजर आईं हैं।
चोखेर पर टिप्पणी दे चुकी हूँ। उस ही को यहाँ भी दे रही हूँ।
मंजू के बारे में जानकर दुख हुआ। सच कहूँ तो यहाँ हर दूसरे तीसरे घर में एक मंजू है। गुप्ता जी से उलझना नहीं चाहती। कुछ घाव हरे हो जाते हैं। हाँ, गुप्ता जी को इतना अवश्य कहूँगी कि अपनी बेटियों के साथ ऐसा नहीं होने दूँगी। यदि हर स्त्री समाज कल्याण न भी कर पाए, केवल अपनी बेटियों को ही सशक्त बनाए तो भी बहुत कुछ बदल सकता है। न इससे अधिक का दावा कभी किया है न करूँगी। गलत बातों में अपनी असहमति दर्ज कराना भी आवश्यक है। यह तो करती रहूँगी। वैसे एक बात और, जिस समाज में बेटियों को जन्म दे पाना ही एक साहसिक काम हो वहाँ हर दो एक बेटी की माँ एक तमगे की अधिकारिणी है।
घुघूती बासूती

दिनेशराय द्विवेदी said...

आप ने बड़ी सादगी से कुछ भी न कहते हुए सब कुछ कह दिया।