हम चले जा रहे थे, आगे घाट की ओर तभी ध्यान गया अपनी दाईं तरफ एकतारे का सुर, पहले भी सुना तो था लेकिन इतना मधुर नहीं, कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या शब्द हैं, क्या गीत के बोल हैं क्या गा रहा है? लेकिन एकतारे का सुर और बोल के साथ ताल बहुत मोहक थी राक सुनती हूँ, गज़ल, फ्यूज़न और शास्त्रीय भी लेकिन ये जो भी था मन को तर करने वाला था सो रिकार्ड कर लिया पहले लगा १ मिनट बहुत है, लेकिन जब डाउनलोड करके सुना तो लगा कि और क्यों नहीं रिकार्ड कर लिया
वो रोज़ सुबह यहाँ आता है, एकतारा और साथ में एक थाली लिये, पहले जब आँखों की रोशनी थी तब महाजन के खेतों में काम करता था, एकतारे को अपने मन बहलाने या शौक के लिये बजाया करता था लेकिन अब वो उसकी अजीविका का साधन बन गया है उसने ये एकतारा खुद बनाया, आश्चार्य हुआ खुद कैसे, कद्दू को सुखा कर और उस पर एक डंडी को तार से बांध कर वो दुनिया से बेखबर बस बजाता रहता है और भगवान को याद करता है, शायद मन ही मन कोसता भी हो भगवान आप कितने कठोर हैं अब आगे के दिन ऐसे ही गुज़रेगें जिन्दगी पहले बहता पानी लगती थी लेकिन अब बहुत विशाल पहाङ
2 comments:
सुनकर मजा आया!!आभार
एकतारा का सुख सुनने मे है लेकिन गरीबी दूर हो जाए तों धून और भी अच्छी लगती
ऐसे गरीब को ब्लाग मे जगह देने के लिए धन्यवाद
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