तुम
तुम्हारी गरीबी जग ज़ाहिर सी
फटे कोट में लगे पैबंद की तरह
उधड़ जाती है
तूफ़ान, अकाल, बाढ़ और महामारी के वक्त
कितने ही साल फिर और लगेंगे
सीने में उसको
चाक-चौबंद बांधते हो तुम अपनी
हर साल चौमास की रातों को काटने
फिर एक रोज़
निसर्ग, अम्फान आते है अफ़रा - त
और उड़ा ले जाते हैं सपने तुम्हा
तुम कितने मेहनती हो ईमानदार भी
सोचते होगे कई मर्तबा क्या इसलि
गरीब हूँ
छोटी छोटी ख़्वाहिशें और ढ़ेर सा
खुशियाँ तुम्हारी कितनी मासूम सी
उमड़ ही आती हैं कभी भी
छोटे बच्चे की मुस्कान की तरह
तुम्हारा धैर्य, समर्पण और जीने
उत्साहित करती है, लड़ना सिखाती
चुनौतियों से, प्रेरित करती है
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