इन दिनों हर शाम छतें मेरे मोहल्ले की
गुलज़ार सी है
जो सूनापन
रहा करता था यहाँ
सालों दर सालों
वो कैद हो जाता है ठीक वैसे ही
जैसे हम रुके हैं अपने आशियाने में
इन दिनों
चिड़ियों की आवाजें
साफ़ सुनाई देने लगीं हैं आजकल
आसमां भी कुछ ज्यादा नीला लगता है
जैसा दिखता था मुझे मेरे बचपन में पहाड़ों पर
यकीन नहीं होता
क्या ये मेरा ही शहर है ??
लूडो, कैरम , शतरंज की बिसाते बिछने लगी है
किताबें जिनपर गर्त हुआ करती थी
सफे उनके पलटने लगें हैं
पकवान जो आर्डर
किये जाते थे एक क्लिक पर
हाथ आजमाइश उन पर होने लगी
सबकुछ थम गया है
मशीनें, गाड़ियां और आदमी भी
कुदरत को रौंदते सोचा ना था कभी इसने
की ऐसा मंजर भी कभी मुकम्मल होगा
इंसान कितना बेशर्म और लालची है
अहसास हुआ इस दरमियाँ
आज जब बात आयी
अपनी जिन्दगी पर
तो घरों में दुबका पड़ा है
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