वो शाम
आज तक याद है मुझे
जब तुम्हारे
प्रथम आलिंगन ने
ये अहसास कराया था
की प्रेम
शायद वासना से ऊपर
उस हिमालय पर बैठे
शिव सा स्थिर और पवित्र है
वो वक्त
थम सा गया
मेरी जिन्दगी मे
और मैं उसे
अपने जीवन का
सत्य मानकर
सांसे लेती रही
आज जब तुम्हें
देखती हूँ
किसी और के
वक्त का हिस्सा
बनते हुऐ
तब
वही वक्त जो
थम गया था
मेरे लिए
मेरी कल्पना को
सहारा देने
मुझे
मुँह् चिढाता है
Saturday, February 25, 2006
Friday, February 17, 2006
अनजानी पहचान
मैं रोज़ की तरह
आज भी
उसी १२ न० की बस से
आफिस जाता हूँ
वो बस
बीच रस्ते में
मुझे उतार देती थी
लेकिन फिर भी
तेरी एक झलक के लिये
ये कम था
मैं कन्डक्ट की सीट
की दाँई तरफ से
चौथी सीट पर बैठा
तुम्हारे स्टाप आने का
इन्तज़ार करता
और तुम
चुपचाप चढकर
बाँई ओर
से तीसरी सीट पर बैठ जाती
मैं मंत्रमुग्ध सा
तुम्हें निहारता रहता
और कई बार सोचता
कि काश
ये रस्ता
तुम्हारा स्टाप आने तक
बहुत लम्बा हो जाये
फिर तुम
मुझसे पहले ही
उतर जाती
उस दिन तुम्हें
अपनी
बगल वाली सीट पर
ना देखकर लगा
तुम
मुझसे
बहुत दूर चली गई हो...
आज भी
उसी १२ न० की बस से
आफिस जाता हूँ
वो बस
बीच रस्ते में
मुझे उतार देती थी
लेकिन फिर भी
तेरी एक झलक के लिये
ये कम था
मैं कन्डक्ट की सीट
की दाँई तरफ से
चौथी सीट पर बैठा
तुम्हारे स्टाप आने का
इन्तज़ार करता
और तुम
चुपचाप चढकर
बाँई ओर
से तीसरी सीट पर बैठ जाती
मैं मंत्रमुग्ध सा
तुम्हें निहारता रहता
और कई बार सोचता
कि काश
ये रस्ता
तुम्हारा स्टाप आने तक
बहुत लम्बा हो जाये
फिर तुम
मुझसे पहले ही
उतर जाती
उस दिन तुम्हें
अपनी
बगल वाली सीट पर
ना देखकर लगा
तुम
मुझसे
बहुत दूर चली गई हो...
Thursday, February 16, 2006
मेरे लम्बी कवीता ०१
तुम
बहुत अच्छे हो
बोलती हूँ कई बार
लेकिन
तुम यकीन नहीं करते
हमेशा की तरह
और
अपनी गर्दन झटक कर
मुहँ से बस
ऊहँ कह देते हो
मैं
यकीन दिलाने को
पूरे विश्वास से
तुम्हें देखकर
फिर बोलती हूँ
तुम....
बहुत अच्छे हो
तुम
फिर ना मानकर
दोबारा पूछने लगते हो
अच्छा हूँ....??
तो बताओ कैसे......???
मै
कुछ पल सोचकर
मुस्कुरा देती हूँ
और
प्यार से तुम्हारे
माथे को चूमकर
फिर बोलती हूँ
हाँ बस,
अच्छे हो.....
लेकिन तुम
ना मानने कि ठानकर
एक ज़िद्दी बच्चे से
इस बात पर अडकर
हट करते हुये,
झुझंलाकर
फिर बोलते हो
लेकिन बताओ तो कैसे,
कैसे मैं अच्छा हूँ......???
मैं असमंजस मे
उस स्थति मे आ पहुँचती हूँ
जहाँ मेरा मन
तुम्हें प्यार और अपना
सब कुछ
देने को व्याकुल
हो उठता है
मन
जो बहुत कुछ
कहना चाहता है लेकिन
दिमाग
उन सब शब्दों को
खोजता रह जाता है
जिनसे तुम्हें
यकिन हो जाये
कि सच
तुम बहुत अच्छे हो..
फिर तभी
तुम्हें यकीन
दिलाने को
मैं कह उठती हूँ
तुम,
तुम इतने अच्छे हो की
मेरी सांसों में
तुम्हारी ही खुशबू आती है
तुम,
तुम इतने अच्छे हो की
मेरे दिल से तुम्हारा नाम
इन रगो के कतरे कतरे मे
जा बसा है
तुम,
तुम इतने अच्छे हो की
मैं खुद मे तुमको
ढूढनें लगती हूँ
शायद
ये सब सुनकर
तुम्हें यकीन हो जाये
की सच
तुम बहुत अच्छे हो
इस दुनिया में
मौजूद सभी चीज़ों से...
----------------------
बहुत अच्छे हो
बोलती हूँ कई बार
लेकिन
तुम यकीन नहीं करते
हमेशा की तरह
और
अपनी गर्दन झटक कर
मुहँ से बस
ऊहँ कह देते हो
मैं
यकीन दिलाने को
पूरे विश्वास से
तुम्हें देखकर
फिर बोलती हूँ
तुम....
बहुत अच्छे हो
तुम
फिर ना मानकर
दोबारा पूछने लगते हो
अच्छा हूँ....??
तो बताओ कैसे......???
मै
कुछ पल सोचकर
मुस्कुरा देती हूँ
और
प्यार से तुम्हारे
माथे को चूमकर
फिर बोलती हूँ
हाँ बस,
अच्छे हो.....
लेकिन तुम
ना मानने कि ठानकर
एक ज़िद्दी बच्चे से
इस बात पर अडकर
हट करते हुये,
झुझंलाकर
फिर बोलते हो
लेकिन बताओ तो कैसे,
कैसे मैं अच्छा हूँ......???
मैं असमंजस मे
उस स्थति मे आ पहुँचती हूँ
जहाँ मेरा मन
तुम्हें प्यार और अपना
सब कुछ
देने को व्याकुल
हो उठता है
मन
जो बहुत कुछ
कहना चाहता है लेकिन
दिमाग
उन सब शब्दों को
खोजता रह जाता है
जिनसे तुम्हें
यकिन हो जाये
कि सच
तुम बहुत अच्छे हो..
फिर तभी
तुम्हें यकीन
दिलाने को
मैं कह उठती हूँ
तुम,
तुम इतने अच्छे हो की
मेरी सांसों में
तुम्हारी ही खुशबू आती है
तुम,
तुम इतने अच्छे हो की
मेरे दिल से तुम्हारा नाम
इन रगो के कतरे कतरे मे
जा बसा है
तुम,
तुम इतने अच्छे हो की
मैं खुद मे तुमको
ढूढनें लगती हूँ
शायद
ये सब सुनकर
तुम्हें यकीन हो जाये
की सच
तुम बहुत अच्छे हो
इस दुनिया में
मौजूद सभी चीज़ों से...
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Monday, February 13, 2006
खिडकियाँ...
मैं अनजान था
शायद
मेरी दुनियाँ के घरों कि
खिङकियों पर हमेशा
एक झीना, रुपहेला
परदा टंगा रहता था
उसकी
दूसरी तरफ
तुम्हारी छवि
कुछ धुंधली
नजर आने पर भी
मुझे पहचान में
आती रही
तुम अक्सर
किसी अप्सरा की तरह
अचानक से आकर
फिर
बोझिल हो जाती
और तब मैं उसे
अपनी नींद में
आने वाले किसी
सुखद सपने की तरह
भूलकर
फिर काम मे लग जाता
मुझे याद है
शायद मैं गलत नहीं
ये सिलसिला
तब तक चला
जब तक उन
खिडकियों पर
वो झीने रुपहले पर्दे थे
शायद
मेरी दुनियाँ के घरों कि
खिङकियों पर हमेशा
एक झीना, रुपहेला
परदा टंगा रहता था
उसकी
दूसरी तरफ
तुम्हारी छवि
कुछ धुंधली
नजर आने पर भी
मुझे पहचान में
आती रही
तुम अक्सर
किसी अप्सरा की तरह
अचानक से आकर
फिर
बोझिल हो जाती
और तब मैं उसे
अपनी नींद में
आने वाले किसी
सुखद सपने की तरह
भूलकर
फिर काम मे लग जाता
मुझे याद है
शायद मैं गलत नहीं
ये सिलसिला
तब तक चला
जब तक उन
खिडकियों पर
वो झीने रुपहले पर्दे थे
Thursday, February 09, 2006
बेचारगी
रोज़ गुजरते उस सडक पर
नजरे अक्सर टकरा जाती हैं
उस बेचारगी भरी नज़र से
और तभी
ख्याल आता है
कल ही तो दिया था तुम्हें
५ रुपये का नोट
क्या खर्च भी कर डाला
नजरे अक्सर टकरा जाती हैं
उस बेचारगी भरी नज़र से
और तभी
ख्याल आता है
कल ही तो दिया था तुम्हें
५ रुपये का नोट
क्या खर्च भी कर डाला
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