Saturday, February 25, 2006

वो वक्त

वो शाम
आज तक याद है मुझे
जब तुम्हारे
प्रथम आलिंगन ने
ये अहसास कराया था
की प्रेम
शायद वासना से ऊपर
उस हिमालय पर बैठे
शिव सा स्थिर और पवित्र है

वो वक्त
थम सा गया
मेरी जिन्दगी मे
और मैं उसे
अपने जीवन का
सत्य मानकर
सांसे लेती रही

आज जब तुम्हें
देखती हूँ
किसी और के
वक्त का हिस्सा
बनते हुऐ

तब
वही वक्त जो
थम गया था
मेरे लिए
मेरी कल्पना को
सहारा देने
मुझे
मुँह् चिढाता है

Friday, February 17, 2006

अनजानी पहचान

मैं रोज़ की तरह
आज भी
उसी १२ न० की बस से
आफिस जाता हूँ

वो बस
बीच रस्ते में
मुझे उतार देती थी
लेकिन फिर भी
तेरी एक झलक के लिये
ये कम था

मैं कन्डक्ट की सीट
की दाँई तरफ से
चौथी सीट पर बैठा
तुम्हारे स्टाप आने का
इन्तज़ार करता
और तुम
चुपचाप चढकर
बाँई ओर
से तीसरी सीट पर बैठ जाती

मैं मंत्रमुग्ध सा
तुम्हें निहारता रहता
और कई बार सोचता
कि काश
ये रस्ता
तुम्हारा स्टाप आने तक
बहुत लम्बा हो जाये

फिर तुम
मुझसे पहले ही
उतर जाती

उस दिन तुम्हें

अपनी
बगल वाली सीट पर
ना देखकर लगा
तुम
मुझसे

बहुत दूर चली गई हो...

Thursday, February 16, 2006

मेरे लम्बी कवीता ०१

तुम
बहुत अच्छे हो
बोलती हूँ कई बार
लेकिन
तुम यकीन नहीं करते
हमेशा की तरह
और
अपनी गर्दन झटक कर
मुहँ से बस
ऊहँ कह देते हो

मैं
यकीन दिलाने को
पूरे विश्वास से
तुम्हें देखकर
फिर बोलती हूँ
तुम....
बहुत अच्छे हो

तुम
फिर ना मानकर
दोबारा पूछने लगते हो
अच्छा हूँ....??
तो बताओ कैसे......???

मै
कुछ पल सोचकर
मुस्कुरा देती हूँ
और
प्यार से तुम्हारे
माथे को चूमकर
फिर बोलती हूँ
हाँ बस,
अच्छे हो.....

लेकिन तुम
ना मानने कि ठानकर
एक ज़िद्दी बच्चे से
इस बात पर अडकर
हट करते हुये,
झुझंलाकर
फिर बोलते हो
लेकिन बताओ तो कैसे,
कैसे मैं अच्छा हूँ......???

मैं असमंजस मे
उस स्थति मे आ पहुँचती हूँ
जहाँ मेरा मन
तुम्हें प्यार और अपना
सब कुछ
देने को व्याकुल
हो उठता है

मन
जो बहुत कुछ
कहना चाहता है लेकिन
दिमाग
उन सब शब्दों को
खोजता रह जाता है
जिनसे तुम्हें
यकिन हो जाये
कि सच
तुम बहुत अच्छे हो..

फिर तभी
तुम्हें यकीन
दिलाने को
मैं कह उठती हूँ

तुम,
तुम इतने अच्छे हो की
मेरी सांसों में
तुम्हारी ही खुशबू आती है

तुम,
तुम इतने अच्छे हो की
मेरे दिल से तुम्हारा नाम
इन रगो के कतरे कतरे मे
जा बसा है

तुम,
तुम इतने अच्छे हो की
मैं खुद मे तुमको
ढूढनें लगती हूँ

शायद
ये सब सुनकर
तुम्हें यकीन हो जाये
की सच
तुम बहुत अच्छे हो
इस दुनिया में
मौजूद सभी चीज़ों से...

----------------------

Monday, February 13, 2006

खिडकियाँ...

मैं अनजान था
शायद

मेरी दुनियाँ के घरों कि
खिङकियों पर हमेशा
एक झीना, रुपहेला

परदा टंगा रहता था

उसकी
दूसरी तरफ

तुम्हारी छवि
कुछ धुंधली
नजर आने पर भी
मुझे पहचान में
आती रही

तुम अक्सर
किसी अप्सरा की तरह
अचानक से आकर
फिर
बोझिल हो जाती

और तब मैं उसे
अपनी नींद में
आने वाले किसी
सुखद सपने की तरह
भूलकर
फिर काम मे लग जाता

मुझे याद है
शायद मैं गलत नहीं
ये सिलसिला
तब तक चला
जब तक उन
खिडकियों पर
वो झीने रुपहले पर्दे थे

Thursday, February 09, 2006

बेचारगी

रोज़ गुजरते उस सडक पर
नजरे अक्सर टकरा जाती हैं
उस बेचारगी भरी नज़र से
और तभी
ख्याल आता है
कल ही तो दिया था तुम्हें
५ रुपये का नोट
क्या खर्च भी कर डाला