Friday, March 31, 2006

"यादों कि गठरी से"

जिन्दगी की कई बातें, हमारी यादों का ऐसा हिस्सा बन जाती हैं जहाँ उस समय के अहसास खुद-बा- खुद महसूस होने लगते हैं

जिन रास्तों से मैं स्कूल के लिये गुजरा करती थी वहाँ सङक के दोनों ओर लाईन से लम्बे लम्बे शहतूत और जामुन के पेङ हुआ करते थे

बहुत मज़ा आता था हम गर्मियों में स्कूल से लौटते समय बिना हायजिनिक बने, ज़मीन पर पङे शहतूत और जामून उठाकर खा जाया करते थे जब कभी स्कूल की सफेद यूर्नीफाम पर वही फल गिरते तो बहुत गुस्सा आता और तब मुहँ से यही निकलता "क्या है, जरूरी होता है तभी गिरना जब मैं यहाँ से गुजरती हूँ, एक मिनट बाद नही गिर सकते थे"

लेकिन अब, ये सब मेरी याद की किताबों के सुनहरे पन्ने बनकर मेरे पास हैं

देखो!
ये बैंगनी दाग
अब तक मेरे
इस सफेद कुर्ते पर
जस के तस हैं

याद है ना
ये हमारे
रास्ते में
खङे
जामुन और शहतूत के
पेङो से
अचानक
गिर पङने वाले
फलों कि
शरारत
हुआ करती थी

जैसे उन्हें
गिर पङने को
तुमने कहा हो

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Wednesday, March 22, 2006

"तुम्हारा इन्तजार"

वो हाथ
जिन्हें तुम
उम्र भर थाम कर
साथ
चलना चाहते थे
आज
हवा के झोकें
के बिना भी
काँप जाते हैं

और
ये आँखे
जिनमें तुम
अपनी किस्मत के
सितारे ढूँढा करते थे
आज पनियाली
हो चुकी हैं

तुम्हारे
इन्तजार में
बिताये हुये पल
क्या..?
गिन नहीं सकते, तुम
मेरे चेहरे पर पङी
झुर्रियों की लकीरों से

Friday, March 10, 2006

"सुनहरे अध्याय"

वर्तमान की दौङ में
अतीत के कई
सुनहरे अध्याय
कोसों लम्बी दूरीयों में
तबदील होकर
पीछे छूट गये

अध्याय - ०१
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याद
आ रहा है आज
वो बरगद का पेङ
और
उसकी छाँव में
कच्ची मिट्टी से बना
छोटा मंदिर

जो हमेशा
बरसात में
काई से जडा
कोनों से
हरा हो जाता था

माँ-पपा की डाँट
की शिकायत करने
मै अक्सर
वहीं जाती थी

याद है मुझे
माँ उन महीनों में
आने वाले हर व्रत
के दिन
भगवान के साथ
उस बरगद को भी
पूजती थी

और
उस बरगद का तना
लाल पीले धागों से लिपटा
बहुत सुन्दर लगता था


अध्याय - ०२
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माँ
तुमने ही बताया था, शायद
वो पपा की साईकिल
और
तुम्हारी अंगीठी
बेच दी कल
कबाङी वाले को
कबाङ के दाम
ये वही साईकिल थी ना
जिसपर बैठकर
पपा रोज़
आफिस जाया
करते थे
और तुम
उन्हें पुराने
अखबार के टुकङे में
रोटी बाँध कर
दिया करतीं थीं

और याद है
एक बार
ज़िद्द कर में
उसके पीछली
सीट पर
बैठ गई थी
और पहिये में आकर
मेरा दुप्ट्टा फट गया था
बहुत डाँटा था
पपा ने उस दिन


अध्याय - ०३
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और वो अंगीठी
जिस पर रखे
कोयलों को
फूँकते - फूँकते
तुम्हारी आँखें
आँसूओं से भरकर
लाल हो जाया करती थीं

तुम
हर शाम
घर के बाहार बने
आँगन में उसे
जलाती
और वही
समय होता जब
हम सब बच्चे
मिलकर
ऊँच-नीच का पपङा
खेलते
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Thursday, March 09, 2006

अनकही यादें...


अनकही यादें - ०१
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मुझे आज भी
अपनी किताबों से भरी
अलमारी के सामने
तुम्हारा बिंम्ब
नजर
आने लगता है
जहाँ तुम अपने
पँजों के बल पर
उचककर
किताबों के ढेर में
अपनी पंसदीदा
किताब को तलाशते
घंटों बिता
देती थी
और मैं तुम्हारी
ऐङी पर पङी
गहरी, फटी
दरारों को देखता रहता


अनकही यादें - ०२
****************
गये पतझङ में
मैं तुम्हारे
आँगन मे खङे
पीपल के
पीले गिरे पत्तों से
चुनकर
एक सूखा पत्ता
उठा लाया था

वो
आज भी
मेरे पास
मेरी पसंदीदा
किताब के
पेज नम्बर २६
के बीच पङा
मुझे
परदेस में
तुम्हारा
प्यार देने को
सुरक्षित है


Wednesday, March 08, 2006

दायरे.....


वो दायरे
तुम्हीं ने तो बनाये थे


हमारे रिश्ते के बीच
और आज


तुम ही पूछते हो

क्यों तुम
इतनी पराई लगती हो...??

कल रात का सपना

मेरे सर पर लाल सुनहरे गोटे वाली चुनरी और माथे पर बङी गोल सिंदूर की लाल बिंदिया थी. उस दिन मैं खुद को एक महारानी सा महसूस कर रही थी.

सभी अपने अनुभवों कि लम्बी चादर फैलाकर शायद मुझे भी अहसास कराना चाह रहे थे कि मैं भी उन लोगो मे से एक उस पर बैठी हुई हूँ.


माँ ने नज़र का काला टीका लगाया था मेरे दाँये कान के पीछे, ठीक निचले हिस्से पर, लेकिन फिर भी हर दो मिनट बाद आकर मेरे चहरे को अपने दोनों हाथों से प्यार से सहलाती और फिर हाथों को अंगुलियों से चूम लेती तो कभी मेरे सर पर अपने दोनों हाथ घुमाकर अपने माथे के दोनों ओर अंगुलियों से कङक की अवाज़ करती जैसे आज शायद सारे ज़माने की बलायें मुझपर आ गिरेगीं.

आज का दिन जिन्दगी मे एक ऐसी खुशी सा लग रहा था जो मेरे अलावा वहाँ मौजूद सभी के चेहरे पर अपने आप झलक पङता. माँ बनने का गौरव और खुशी आज दुगनी हो गई.

सभी औरतों ने बारी बारी से मेरी गोद में अपने उपहार रखतीं और पास आकर कान मे अच्छी बातें कहती और मैं सब सुनकर खिलखिलाकर हँस पङती.

इसी क्रम मे सारी रात कब बीती और कब सुबह हो गई पता भी नहीं चला माँ सिरहाने बैठी उठा रहीं थीं, और मेरी आँखे खोलते ही पूछने लगीं क्या हुआ सोते हुये मुस्कुरा क्यों रही थी.. कोई अच्छा सपना देखा क्या? और मैं उन्हें देखकर फिर से मुस्कुरा दी और मन ही मन सोचने लगी सच सपना तो वकई बहुत अच्छा था..